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उत्तरज्झयणाणि
वर्ग तप को ४०६६ बार करने से वर्ग-वर्ग तप बनता है। इसके ४०६६ x ४०६६= १६७७७२१६ पद बनते हैं।
६. प्रकीर्ण तप-यह पद श्रेणि आदि निश्चित पदों की रचना बिना ही अपनी शक्ति के अनुसार किया जाता है । यह अनेक प्रकार का है। ___ शान्त्याचार्य ने नमस्कार-संहिता आदि तथा यवमध्य, वज्रमध्य, चन्द्र-प्रतिभा आदि तपों को प्रकीर्ण तप के अन्तर्गत माना है। ४६. मणइच्छियचित्तत्यो
टीकाकार ने इसका अर्थ 'मनोवाञ्छित विचित्र प्रकार का फल देने वाला' किया है। फल-प्राप्ति के लिये तप नहीं करना चाहिये, टीकाकार का अर्थ इस मान्यता का विरोधी नहीं है। 'मणइच्छियचित्तत्यो' यह वाक्य तप के गौण फल का सूचक है।
आगम-साहित्य में इस प्रकार के अनेक उल्लेख मिलते हैं। इसका अर्थ 'मन इच्छित विचित्र प्रकार से किया जाने वाला तप' भी हो सकता है । ५०. श्लोक १२-१३
इन दो श्लोकों में मरण-काल-भावी अनशन का निरूपण है। प्रोपपातिक में उसके दो प्रकार निर्दिष्ट हैं-१. पादोपगमन और २. भक्त-प्रत्याख्यान ।
पादोपगमन नियमतः अप्रतिकर्म है और उसके दो प्रकार हैं-व्याघात, नियाघात ।
भक्त-प्रत्याख्यान नियमत: सप्रतिकर्म है, उसके भी दो प्रकार हैं—व्याघात, निर्व्याघात ।
समवायांग में इस अनशन के तीन प्रकार निर्दिष्ट हैं—१. भक्त-प्रत्याख्यान, २. इंगिनी और ३. पादोपगमन ।
प्रस्तुत अध्ययन में मरण-काल भावी अनशन के प्रकारों (भक्त प्रत्याख्यान आदि) का उल्लेख नहीं है । केवल उनका सात विधानों से विचार किया गया है।
१. सविचार-हलन-चलन सहित । २. सपरिकर्म-शुश्रूषा या संलेखना-सहित ।
३. निर्हारि-उपाश्रय से बाहर गिरी कंदरा आदि एकान्त स्थानों में किया जाने वाला।
४. अविचार -स्थिरता युक्त । ५. अपरिकर्म-शुश्रूषा या संलेखना-रहित । ६. अनिर्हारि-उपाश्रय में किया जाने वाला। ७. प्राहारच्छेद। भक्त-प्रत्याख्यान में जल-वजित त्रिविध आहार का भी प्रत्याख्यान किया जाता है
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