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उत्तरज्झयणाणि
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भूत-जीव-सत्त्वों में विश्वसनीय रूप, अप्रतिलेख, जितेन्द्रिय और विपुल तपः समितिसमन्वागत-ये महत्त्वपूर्ण पद हैं। बताया गया है कि प्रतिरूपता का परिणाम लाघव है । जो लघुभूत होता है, वह अप्रमत्त आदि हो जाता है। शान्त्याचार्य के अनुसार प्रत्येक शब्द का अर्थ इस प्रकार है
अप्रमत्त-प्रमाद के हेतुओं का परिहार करने वाला। प्रकट-लिङ्ग- स्थविर-कल्पिक मुनि के रूप में समझा जाने वाला। प्रशस्त-लिङ्ग- जीव-रक्षा के हेतुभूत रजोहरण आदि को धारण करने वाला। विशुद्ध-सम्यक्त्व- सम्यक्त्व की विशुद्धि करने वाला। समाप्त सत्त्व-समिति- सत्त्व (पराक्रम) और समिति को प्राप्त करने वाला।
सर्व-प्राण-भूत-जीव-सत्त्वों में विश्वसनीय रूप—किसी को भी पीड़ा नहीं देने के कारण सबका विश्वास प्राप्त करने वाला।
अप्रतिलेख-उपकरणों की अल्पता के कारण अल्प प्रतिलेखन वाला। जितेन्द्रिय- इन्द्रियों को वश में रखने वाला।
विपुल तपः समिति-समन्वागत--विपुलतप और समितियों का सर्वत्र प्रयोग करने वाला।
प्रतिरूपता के परिणामों को देखते हुए 'प्रतिरूप' का अर्थ स्थविर-कल्पिक के सदृश वेशवाला और 'प्रतिरूपता' का अर्थ 'अधिक उपकरणों का त्याग' सही नहीं लगता। मूलाराधना में अचेलत्व को जिन-प्रतिरूप' कहा है। 'जिन' अर्थात् तीर्थङ्कर अचेल होते हैं। 'जिन' के समान रूप (लिङ्ग) धारण करने वाले को जिन-प्रतिरूप' कहा जाता है। प्रवचनसारोद्धार के अनुसार गच्छ में रहते हुए भी जिन-कल्पिक जैसे प्राचार का पालन करने वाला 'जिन-कल्पिक-प्रतिरूप' कहलाता है । यहाँ भी प्रतिरूप का अर्थ यही'जिन के समान वेश वाला' यानी जिन-कल्पिक होना चाहिये । अप्रमत्त प्रादि सारे विशेषणों पर विचार किया जाए तो यही अर्थ संगत लगता है । मलाराधना में अचेलकता के जो गुण बललाए हैं, वे इस सूत्र के अप्रमत्त आदि विशेषणों के बहुत निकट हैंउत्तराध्ययन
मूलाराधना १. प्रतिरूपता का फल-लाघव अचेलकता का एक गुण-लाघव २. अप्रमत्त
विषय और देह सुखों में अनादर ३. प्रकट- लिङ्ग
नग्नता-प्राप्त ४. प्रशस्त-लिङ्ग
प्रशस्त-
लिङ्ग ५. विशुद्ध-सम्यक्त्व
रागादि दोष-परिहरण ६. समाप्त-सत्त्व-समिति
वीर्याचार ७. सर्व प्राण-भूत-जीव-सत्त्वों में विश्व- विश्वासकारी रूप
सनीय रूप
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