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चित्त-समाधि : जैन योग
८. अप्रतिलेख
अप्रतिलेखन ६. जितेन्द्रिय
सर्व-समित-करण (इन्द्रिय) १०. विपुलतपः समिति-समन्वागत परीषह-सहन
उक्त तुलना से प्रतिरूपता का अर्थ 'अचेलता' ही प्रमाणित होता है। अचेल को सचेल की अपेक्षा बहुत अप्रमत्त रहना होता है। उसके पास विकार को छिपाने का कोई साधन नहीं होता । जो अचेल होता है, उसका लिङ्ग सहज ही प्रकट होता है। अचेल उसी को होना चाहिये, जिसका लिङ्ग प्रशस्त हो-विकृत आदि न हो। अचेल व्यक्ति का सम्यक्त्व-देह और आत्मा का भेद-ज्ञान-विशुद्ध होता है । समाप्त-सत्त्व-समितिअचेल सत्त्व प्राप्त होता है अर्थात् अभय होता है । इसकी तुलना मूलाराधना (२/८३) के 'गत-भयत्व' शब्द से भी हो सकती है। समिति का अर्थ 'विविध प्रकार के आसन करने वाला' हो सकता है। अचेल की निर्विकारता प्रशस्त होती है, इसलिये वह सबका विश्वासपात्र होता है। अप्रतिलेखन अचेलता का सहज परिणाम है। अचेलता से जितेन्द्रिय होने की प्रबल प्रेरणा मिलती है । अचेल होना एक प्रकार का तप है । नग्नता शीत, उष्ण, दंश, मशक—ये परीषह सचेल की अपेक्षा अचेल को अधिक सहने होते हैं; इसलिये उसके विपुल तप होता है। इस प्रकार सारे पदों में एक शृंखला है। उससे अचेलता के साथ उनकी कड़ी जुड़ जाती है।
स्थानांग में पाँच कारणों-१. अप्रतिलेखन, २. प्रशस्त-लाघव, ३. वैश्वासिक-रूप, ४. तप-उपकरण-संलीनता और ५. महान् इन्द्रिय-निग्रह से अचेलक को प्रशस्त कहा है।
ये पांचों कारण प्रतिरूपता के परिणामों में आये हुये हैं। अतः प्रतिरूपता का अर्थ 'मचेलकता' करने में बहुत बड़ा आधार प्राप्त होता । ३७. सव्वगुणसपन्नयाए
प्रात्म-मुक्ति के लिये ज्ञान, दर्शन और चारित्र—ये तीन गुण प्रयोजनीय होते हैं । जब तक निरावरण ज्ञान, पूर्ण दर्शन (क्षायिक सम्यक्त्व) और पूर्ण चरित्र (सर्वसंवर) की प्राप्ति नहीं होती, तब तक सर्वगुण-सम्पन्नता उपलब्ध नहीं होती। इसका अभिप्राय यह है कि कोरे ज्ञान, दर्शन या चारित्र की पूर्णता से मुक्ति नहीं होती। किन्तु जब तीनों परिपूर्ण होते हैं, तभी यह होती है। पुनरावर्तन, शारीरिक और मानसिक दुःख-ये सब गुण विकलता के परिणाम हैं । सर्व-गुण-सम्पन्नता होने पर ये नहीं होते। ३८. वीयरागयाएणं
- 'वीतराग' स्नेह और तृष्णा की बंधन-परम्परा का विच्छेद कर देता है। पुत्र प्रादि में जो प्रीति होती है, उसे स्नेह और धन आदि के प्रति जो लालसा होती है, उसे 'तृष्णा' कहा जाता है । स्नेह और तृष्णा की परम्परा उत्तरोत्तर बढ़ती रहती है, इसलिये इनके बंधन को अनुबन्ध कहा गया है । ३६. खन्तीए
शान्त्याचार्य ने शान्ति का अर्थ 'क्रोध-विजय' किया है । इस अर्थ के अनुसार यहाँ
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