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चित्त-समाधि : जैन योग
था, तू सदा ऐसा ही करता है', इस प्रकार बार-बार टोकना-ये हो जाते हैं। साधु को ऐसा नहीं करना चाहिये, फिर भी प्रमादवश वे ऐसा कर लेते हैं। इस स्थिति में मानसिक-असमाधि उत्पन्न हो जाती है। जो मुनि संघ में रहते हुए भी स्वावलम्बी हो जाता है, किसी भी कार्य के लिये दूसरों पर निर्भर नहीं होता, वह समुदाय में रहते हुये भी अकेले का जीवन जीता है। उसे कलह, क्रोध आदि कषाय और तुमंतुम आदि से सहज ही मुक्ति मिल जाती है। इससे संयम और संवर बढ़ता जाता है। मानसिकसमाधि अभंग हो जाती है। सामुदायिक-जीवन में रहते हुए भी अकेला रहने की साधना बहुत बड़ी साधना है। ३४ भत्तपच्चक्खाणणं
भक्त-प्रत्याख्यान अामरण-अनशन का एक प्रकार है। इसका परिणाम जन्मपरम्परा का अल्पीकरण है। इसका हेतु ग्राहार-त्याग का दृढ़-अध्यवसाय है। देह का आधार पाहार और आहार-विषयक प्रासक्ति है । आहार की प्रासक्ति और आहारदोनों के त्याग से केवल स्थूल देह का ही नहीं, अपितु सूक्ष्म देह का भी बन्धन शिथिल हो जाता है । फलत: सहज ही जन्म-मरण की परम्परा अल्प हो जाती है । ३५ सब्भावपच्चक्खाणेणं
सद्भाव-प्रत्याख्यान का अर्थ 'परमार्थ रूप से होनेवाला प्रत्याख्यान' है। इस अवस्था को पूर्ण संवर या शैलेशी, जो चौदहवें गुणस्थान में अयोगी केवली के होती है, कहा जाता है। इससे पूर्ववर्ती सब प्रत्याख्यान इसलिये अपूर्ण होते हैं कि उनमें और प्रत्याख्यान करने की आवश्यकता शेष रहती है। इस भूमिका में परिपूर्ण प्रत्याख्यान होता है । उसमें फिर किसी प्रत्याख्यान की अपेक्षा नहीं रहती। इसीलिये इसे 'पारमार्थिकप्रत्याख्यान' कहा गया है। इस भूमिका को प्राप्त प्रात्मा फिर से प्रास्रव, प्रवृत्ति या बन्धन की भूमिका में प्रवेश नहीं होता, इसलिये इसके परिणाम को 'अनिवृत्ति' कहा गया है। 'अनिवृत्ति' अर्थात् निस स्थिति से निवर्तन नहीं होता-लौटना नहीं पड़ता। यह शुक्ल-ध्यान का चतुर्थ चरण है। इस अनिवृत्ति ध्यान की दशा में केवली के जो चार अघात्यकर्म विद्यमान रहते हैं, वे क्षीण हो जाते हैं-यह 'चत्तारि केवलि-कम्मंसे खवेई' का भावार्थ है। केवलिकम्मसे' शब्द का प्रयोग इस सूत्र के अतिरिक्त अट्ठानवें और इकसठवें सूत्र में भी हुप्रा है। 'कम्मसे' शब्द इकहत्तरवें और बहत्तरखें सूत्र में प्रयुक्त हुअा है। 'कम्मसे' में जो 'अंस' शब्द है, उसका अर्थ कर्म-ग्रन्थ की परिभाषा के अनुसार 'सत्'–विद्यमान है। ३६ पडिरूव
शान्त्याचार्य के अनुसार प्रतिरूप' वह होता है, जिसका वेश स्थविर-कल्पिक मुनि के सरीखा हो और प्रतिरूपता' का अर्थ है----'अधिक उपकरणों का त्याग'। इस सूत्र में अप्रमत्त, प्रकट-लिङ्ग, प्रशस्त-लिङ्ग, विशुद्ध-सम्यक्त्व, समाप्त-सत्त्व-समिति, सर्व प्राण
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