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________________ उत्तरज्भयणाणि १४३ तप करना' होना चाहिये । ३१ कसायपच्चक्खाणेणं प्रात्मा विजातीय रंग में रंगी हुई होती है, उसी का नाम 'कषाय' है। कषाय के प्रत्याख्यान का अर्थ है 'प्रात्मा से विजातीय रंग का धुल जाना' । आत्मा की कषायमुक्त स्थिति का नाम है 'वीतरागता' । कषाय और विषमता-इन्हें पर्यायवाची कहा जा सकता है । कषाय से विषमता उत्पन्न होती है, इसकी अपेक्षा यह कहना अधिक उचित है कि कषाय और विषमता दोनों साथ-साथ उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार बीतरागता और समता भी एक साथ उत्पन्न होती हैं । सुख-दुःख आदि बाहरी स्थितियों में प्रात्मा की जो विषम अनुभूति होती है, उसका हेतु कषाय है। उसके दूर होते ही आत्मा में बाह्य-स्थिति विषमता उत्पन्न नहीं करती। इस स्थिति को 'वीतरागता' या 'प्रात्मा की बाह्य वातावरण से मुक्ति' कहा जा सकता है । ३२ सूत्र (३८-३६) इन सूत्रों में 'अयोगि-दशा' और 'मुक्त-दशा' का निरूपण है। पहले प्रवृत्ति-मुक्ति (योग-प्रत्याख्यान) होती है फिर शरीर-मुक्ति (शरीर-प्रत्याख्यान)। यहाँ 'योग' शब्द समाधि का वाचक नहीं किन्तु मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का वाचक है। मुक्त होने के क्रम में पहले अयोगि-दशा प्राप्त होती है। उससे नये कर्मों का बन्ध समाप्त हो जाता है—पूर्ण संवर हो जाता है और पूर्व-संचित कर्म क्षीण हो जाते हैं। कर्म के अभाव में आत्मा शरीर-मुक्त हो जाती है और शरीर-मुक्त प्रात्मा में अतिशय गुणों का विकास हो जाता है। वह सर्वथा अवर्ण, अगन्ध, अरस और अस्पर्श हो जाती है-अरूपी सत्ता में अवस्थित हो जाती है। अगुरु-लघु, स्थिर-अवगाहना और अव्याबाघ (सहज सुख)–ये गुण प्रकट हो जाते हैं। अनन्त-ज्ञान, अनन्त-दर्शन, अनन्तशुद्धि और अनन्त-वीर्य-ये पहले ही प्राप्त हो चुके होते हैं। प्रवृत्ति और शरीर के बन्धन से बंधी हुई आत्मा इतस्ततः भ्रमण करती है। किन्तु उन बन्धनों से मुक्त होने पर वह ऊर्ध्व-लोक के अन्तिम छोर पर पहुंच कर अवस्थित हो जाती है, फिर उसके पास गति का माध्यम नहीं होता। ३३ सहायपच्चक्खाणेणं ____ जो साधु 'गण' या 'संघ' में दीक्षित होते हैं, उनके लिये दूसरे साधुओं से सहयोग लेना वर्जित नहीं है। सहाय-प्रत्याख्यान का जो विधान है, वह एक विशेष साधना है। उसे स्वीकार करने के पीछे दो प्रकार का मानस हो सकता है। एक वह जो अपने पराक्रम से ही अपनी जीवन चर्या का निर्वाह करना चाहता है, दूसरे सहायक का सहारा लेना नहीं चाहता-परावलम्बी होना नहीं चाहता। दूसरा वह जो सामुदायिक जीवन के झंझावातों में अपनी समाधि को सुरक्षित नहीं पाता। सामुदायिक-जीवन में कलह, क्रोध आदि कषाय और तुमंतुम थोड़ा सा अपराध होने पर 'तूने पहले ही ऐसा किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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