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चित्त-समाधि : जैन योग
में रहे और दूसरों का पालंबन भी प्राप्त करे। फिर भी उसे इस बात की विस्मृति नहीं होनी चाहिये कि उसका अग्रिम लक्ष्य स्वावलम्बन है । स्थानांग में इस जीविकासम्बन्धी स्वावलम्बन को 'सुख-शय्या' कहा है । उसका संकेत इसी सूत्र में प्राप्त है। चार सुख-शय्याओं में यह दूसरी सुख-शय्या है । उसका स्वरूप इस प्रकार है—कोई व्यक्ति मुण्ड होकर अगार से अनगारत्व में प्रवजित होकर अपने लाभ से संतुष्ट होता है, दूसरे के लाभ का आस्वाद नहीं करता, स्पृहा नहीं करता, प्रार्थना नहीं करता, अभिलाषा नहीं करता, वह दूसरे के लाभ का प्रास्वाद नहीं करता हुआ, स्पृहा नहीं करता हुआ, प्रार्थना नहीं करता हुप्रा, अभिलाषा नहीं करता हुआ, मन में समता को धारण करता हुआ धर्म में स्थिर हो जाता है । २६ उवहिपच्चक्खाणेणं
मुनि के लिए वस्त्र प्रादि उपाधि रखने का विधान किया गया है। किंतु विकासक्रम की दृष्टि मे उपधि-परित्याग को अधिक महत्त्व दिया गया है । उपषि रखने में दो बाधामों की संभावना है-१. परिमन्थ और २. संक्लेश। उपधि-प्रत्याख्यान से ये दोनों संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं। परिमन्थ-उपधि की प्रतिलेखना से जो स्वाध्यायध्यान की हानि होती है, वह उपधि के परित्याग से समाप्त हो जाती है । संक्लेशजो उपधि का प्रत्याख्यान करता है उसके मन में 'मेरा वस्त्र पुराना हो गया है, फट गया है, सूई मांग कर लाऊं, उसे सांधूं'-ऐसा कोई संक्लेश नहीं होता । पसंक्लेश का यह रूप प्राचारांग में प्रतिपादित है । मूलाराधना में इसे 'परिकर्म-वर्जन' कहा है। ३० प्राहारपच्चक्खाणेणं
___ आहार-प्रत्याख्यान के दो अर्थ हो सकते हैं--१. जीवन-पर्यन्त अनशन और २. निश्चित अवधि-पर्यन्त अनशन ।
__ शान्त्याचार्य ने आहार-प्रत्याख्यान का अर्थ 'मनेषणीय (अयोग्य) भक्त-पान का परित्याग' किया है। किन्तु इसके परिणामों को देखते हुए इसका अर्थ और अधिक व्यापक हो सकता है।
पाहार-प्रत्याख्यान के दो परिणाम हैं-१. जीवन की आकाङ्क्षा का विच्छेद और २. आहार के बिना संक्लेश प्राप्त न होना-बाधा का अनुभव न करना। ये परिणाम प्राहार-त्याग की साधना से ही प्राप्य हैं। एषणीय आहार नहीं मिलने पर उसका जो प्रत्याख्यान किया जाता है, उसमें भी प्रात्मा का स्वतंत्र-भाव है । किन्तु वह योग्य आहार की अप्राप्ति से होने वाला तप है । ममत्व-हानि तथा शरीर और प्रात्मा के भेद-ज्ञान को विकसित करने के लिये जो आहार-प्रत्याख्यान किया जाता है, वह योग्य आहार की प्राप्ति की स्थिति में किया जाने वाला तप है। उससे जीवन के प्रति निर्ममत्व और पाहार के अभाव में संक्लेश रहित मनोभाव-ये दोनों सहज ही सघ जाते हैं । इसलिये पाहार-प्रत्याख्यान का मुख्य अर्थ 'साधना के विशेष दृष्टिकोण से
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