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ठाणं
४. शौच - लोभ की प्रत्यन्त निवृत्ति । लोभ चार प्रकार का है— श्रारोग्यलोभ, इन्द्रियलोभ और उपभोगलोभ । लोभ के तीन प्रकार स्वद्रव्य का प्रत्याग, परद्रव्य का अपहरण, धरोहर की हड़प ।
५. सत्य ।
६. संयम -- प्राणीपीड़ा का परिहार और इन्द्रिय-बिजय । संयम के दो प्रकार हैंउपेक्षासंयम- राग-द्वेषात्मक चित्तवृत्ति का अभाव । अपहृत संयम - भावशुद्धि, कायशुद्धि श्रादि ।
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७. तप ।
८. त्याग - सचित्त तथा श्रचित्त परिग्रह की निवृत्ति ।
६. श्राकिञ्चन्य - शरीर आदि सभी बाह्य वस्तुनों मे ममत्व का त्याग । १०. ब्रह्मचर्य — कामोत्तेजक वस्तुओं तथा दृश्यों का वर्णन तथा गुरु की आज्ञा का
पालन ।
जीवनलोभ, और हैं
श्राचार्य कुन्दकुन्द द्वारा विरचित 'द्वादशानुपेक्षा' के अन्तर्गत 'धर्म-अनुप्रेक्षा में इन दस घर्मो की व्याख्याएं प्राप्त हैं । वे उपर्युक्त व्याख्याओं से यत्र-तत्र भिन्न हैं । वे इस प्रकार हैं
१. क्षमा — क्रोधोत्पत्ति के बाह्य कारणों के प्राप्त होने पर भी क्रोध न करना । २. मार्दव - कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, श्रुत और शील का गर्व न करना ।
३. प्रार्जव - कुटिल भाव को छोड़कर निर्मल हृदय से प्रवृत्ति करना ।
४. सत्य- - दूसरों को संताप देनेवाले वचनों का त्यागकर, स्व और पर के लिए हितकारी वचन बोलना ।
५. शौच - कांक्षाओं से निवृत्त होकर वैराग्य में रमण करना ।
६. संयम --- व्रत तथा समितियों का यथार्थ पालन, दण्ड- त्याग तथा इन्द्रिय-जय ।
७. तप-विषयों तथा कषायों का निग्रह कर अपनी आत्मा को ध्यान और स्वाध्याय से भावित करना ।
८. त्याग - आसक्ति को छोड़कर पदार्थों के प्रति वैराग्य रखना ।
९. किञ्चन्य – निस्संग होकर अपने सुख-दुख के भावों का निग्रह कर निर्द्वन्द्व रूप से विहरण करना ।
संयम का प्रथम महाव्रत प्राणातिपात विरति में, सत्य का दूसरे महाव्रत मृषावाद विरति में,
१०. ब्रह्मचर्य - स्त्री के अंग-प्रत्यंगों को देखते हुए भी उनमें दुर्भाव न लाना ।
श्रावश्यकचूर्ण के अनुसार इन दसों धर्मों का समवतार मूलगुण ( महाव्रत ) तथा उत्तरगुणों में होता है
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