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चित्त-समाधि: जन योग
अकिंचनता का तीसरे महाव्रत अदत्त विरति में, ब्रह्मचर्य का चौथे महाव्रत मैथुन विरति में तथा शेष धर्मों का उत्तर गुणों में समावेश होता है ।
३६. परिणाम-वृत्तिकार ने परिणाम के चार अर्थ किये हैं-१. पर्याय, २. स्वभाव, ३. धर्म, ४. विपाक ।
प्रस्तुत सूत्र में परिणाम शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है-पर्याय और विपाक । प्रथम दो विभाग पर्याय के और शेष चार विपाक के उदाहरण हैं।
३७. स्थानायतिक- स्थानांग वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिये हैंस्थानातिद और स्थानातिग। स्थान का अर्थ कायोत्सर्ग है । स्थाना तिद और स्थानातिग—इन दोनों का अर्थ है—कायोत्सर्ग करने वाला। जिस प्रासन में सीधा खड़ा होना होता है, उसका नाम स्थानायतिक है । स्थान तीन प्रकार के होते हैं-उर्ध्वस्थान, निषीदनस्थान और शयनस्थान । स्थानायतिक उर्ध्वस्थान का सूचक है ।
प्रतिमास्थायी-वृत्तिकार ने प्रतिमा का अर्थ कायोत्सर्ग की मुद्रा में स्थित रहना किया है । कहीं-कहीं प्रतिमा का अर्थ कायोत्सर्ग भी प्राप्त होता है । बैठी या खड़ी प्रतिमा की भांति स्थिरता से बैठने या खड़ा रहने को प्रतिमा कहा गया है। यह कायक्लेश तप का एक प्रकार है । इसमें उपवास आदि की अपेक्षा कायोत्सर्ग, प्रासन व ध्यान की प्रधानता होती है। (प्रतिमा की जानकारी के लिये देखें---दशाश्रुतस्कन्ध, दशा सात)।
वीरासनिक-सिंहासन पर बैठने से शरीर की जो स्थिति होती है, उसी स्थिति में सिंहासन के निकाल लेने पर स्थित रहना, वीरासन है। यह कठोर आसन है। इसकी साधना वीर मनुष्य ही कर सकता है। इसलिए इसका नाम 'वीरासन' है। विशेष विवरण के लिये देखें-उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ० १४६-५० ।
नैषधिक-इसका अर्थ है-बैठने की विधि ।
३८. प्रातापक-प्रातापना का अर्थ है-प्रयोजन के अनुरूप सूर्य का प्रताप लेना । प्रौपपातिक के वृत्तिकार ने आतापना के प्रासन-भेद से अनेक भेद प्रतिपादित किये हैं । प्रातापना के तीन प्रकार हैं ।
१. निपन्न-सोकर ली जाने वाली--उत्कृष्ट । २. अनिपन्न-बैठकर ली जाने वाली—मध्यम । ३. उर्ध्वस्थित-खड़े होकर ली जाने वाली-जघन्य ।
निपन्न आतापन के तीन प्रकार हैं—१. अधोरुकशायिता, २, पार्श्वशायिता, ३, उत्तानशायिता।
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