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चित्त-समाधि : जैन योग यह अर्थ सम्यक्-प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर किया गया प्रतीत होता है। असम्यक् की निवृत्ति हुए बिना कोई भी प्रवृत्ति सम्यक् नहीं बनती, इस दृष्टि से सम्यक्प्रवृत्ति में गुप्ति का होना अनिवार्य माना गया है।
सम्यकप्रवृत्ति से निरपेक्ष होकर यदि गुप्ति का अर्थ किया जाए तो इसका अर्थ होगा-निरोध । महर्षि पतञ्जलि ने लिखा है-चित्तवृत्ति निरोधो योगः (योग दर्शन १/१)। जैन-दृष्टि से इसका समानान्तर सुत्र लिखा जाए तो वह होगा 'चित्तवृत्ति निरोधो गुप्तिः।
३५. पांचवे स्थान में दो सूत्रों (३४-३५) में दस धर्मों का उल्लेख मिलता है । वहाँ वृत्तिकार ने उनका अर्थ इस प्रकार किया है
१. क्षांति-क्रोध निग्रह। २. मुक्ति-लोभनिग्रह। ३. प्रार्जव–माया निग्रह। ४. मार्दव—माननिग्रह।
५. लाघव-उपकरण की अल्पता; ऋद्धि, रस और सात-इन तीनों गौरवों का त्याग ।
६. सत्य-काय ऋजुता, भाव-ऋजुता और अविसंवादनयोग-कथनी-करनी की समानता।
७. संयम-हिंसा आदि की निवृत्ति । ८. तप । ६. त्याग—अपने सांभोगिक साधुओं को भक्त प्रादि का दान । १०. ब्रह्मचर्यवास—कामभोग विरति ।
वृत्तिकार ने दस धर्म की एक दूसरी परम्परा का उल्लेख किया है, जो तत्त्वार्थसूत्रानुसारी है । उसके अनुसार नाम और क्रम में अन्तर है- १. उत्तम क्षमा, २. उत्तम मार्दव, ३. उत्तम आर्जव, ४. उत्तम शौच, ५. उत्तम सत्य, ६. उत्तम संयम, ७. उत्तम तप, ८. उत्तम त्याग. ६. उत्तम आकिंचन्य, १०. उत्तम ब्रहमचर्य ।
तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार इनकी व्याख्या इस प्रकार है
१. क्षमा-क्रोध के निमित्त मिलने पर भी कलुष न होना। शुभ परि गामों से क्रोध आदि की निवृत्ति ।
२. मार्दव-जाति, ऐश्वर्य, श्रुत, लाभ प्रादि का मद नहीं करना, दूसरे के द्वारा परिभव के निमित्त उपस्थित करने पर भी अभिमान नहीं करना ।
३. आर्जव-मन, वचन और काया की ऋजुता।
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