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________________ चित्त-समाधि : जैन योग वह राग और द्वष से मुक्त रहकर कर्म-शरीर को क्षीण करता है । टिप्पण--१२ जैसे साँसारिक मनुष्य के मन में परिग्रह की सुरक्षा का भय बना रहता है, वैसे ही वस्तु के प्रति मूर्छा रखने वाले साधक के मन में भी सुरक्षा का भय बना रहता है । टिप्पण -१३ रूप और हिंसा में आसक्त मनुष्य मानता है कि रूप जीवन का सार तत्त्व है और हिंसा सब समस्याओं का समाधान है। जिसकी भाव-धारा बदल जाती है.----रूप और हिंसा के प्रति आसक्ति समाप्त हो जाती है, वह मानता है कि रूप क्षणभंगुर और परिणाम-काल में दुःखद है तथा हिंसा सब समस्याओं का मूल है। विश्व में जितनी समस्याएं हैं, जितने दुःख हैं, वे सब मुलतः हिंसा से उत्पन्न हैं। टिप्पण-१४ "संग' शब्द के तीन अर्थ किए जा सकते हैं--प्रासक्ति, शब्द आदि इन्द्रियविषय और विघ्न। आसक्ति को छोड़ने का उपाय है—ासक्ति को देखना। जो आसक्ति को नहीं देखता, वह उसे छोड़ नहीं पाता। भगवान् महावीर की साधना-पद्धति में जानना और देखना अप्रमाद है, जागरूकता है; इसलिए वह परित्याग का महत्त्वपूर्ण उपाय है । जैसे-जैसे जानना और देखना पुष्ट होता है, वैसे-वैसे कर्म-संस्कार क्षीण होता है। उसके क्षीण होने पर आसक्ति अपने आप क्षीण हो जाती है । टिप्पण--१५ आत्मा शब्द का प्रयोग चैतन्य-पिण्ड, मन और शरीर के अर्थ में होता है । अभिनिग्रह का अर्थ है---समीप जाकर पकड़ना। जो व्यक्ति मन के समीप जाकर उसे पकड़ लेता है, उसे जान लेता है, वह सब दुःखों से मुक्त हो जाता है। निकटता से जान लेना ही वास्तव में पकड़ना है। नियंत्रण करने से प्रतिक्रिया पैदा होती है । उससे निग्रह नहीं होता। धर्म के क्षेत्र में यथार्थ को जान लेना ही निग्रह है। टिप्पण-१६ मनुष्य की इन्द्रियां दुर्बल, चपल और उच्छृखल होती हैं तथा मोह की शक्ति अचिंत्य और कर्म की परिणति विचित्र होती है। इसलिए वे ज्ञानी मनुष्य को भी पथ से उत्पथ की ओर ले जाती हैं । टिप्पण-१७ साधक विषयों को त्यागकर संयम में रमण करता है। साधना काल में प्रमाद, कषाय, आदि समय-समय पर उभरते हैं और उसे विषयाभिमुख बना देते हैं। किन्तु जागरूक साधक धर्म की धारा को मूल-स्रोत (प्रात्मदर्शन) से जोड़कर प्रात्मानुभव करता रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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