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आयारो में भी तीनों लोकों का चिन्तन किया जाता है। (नमस्कार स्वाध्याय, पृ० २४६).
टिप्पण-२
__वस्तु का अपरिभोग और परिभोग--ये दो अवस्थाएं हैं। वस्तु का अपरिभोग एक निश्चित सीमा में ही हो सकता है। जहां जीवन है, शरीर है, वहां वस्तु का उपभोग-परिभोग करना ही होता है। एक तत्त्वदर्शी मनुष्य भी उसका उपभोगपरिभोग करता है और तत्त्व को नहीं जानने वाला भी। किन्तु इन दोनों के उद्देश्य, भावना और विधि में मौलिक अन्तर होता है
उद्देश्य
भावना
विधि
तत्त्व को नहीं जानने वाला पौद्गलिक सुख प्रासक्त
असंयत
तत्त्वदर्शी
संयत
आत्मिक विकास अनासक्त के लिए शरीर
धारण
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टिप्पण-३
भगवान् महावीर की साधना का मौलिक अाधार है अप्रमाद-निरंतर जागरूक रहना। अप्रमाद का पहला सूत्र है.---प्रात्म-दर्शन । भगवान् ने कहा- प्रात्मा से आत्मा को देखो-संपिक्खिए अप्पगमप्पएणं (दशवकालिक चूलिका, २/११)
अनन्य दर्शन का अर्थ प्रात्म-दर्शन है। जो आत्मा को देखता है, वह प्रात्मा में रमण करता है; जो आत्मा में रमण करता है, वह प्रात्मा को देखता है। दर्शन के बाद रमण और रमण के बाद फिर स्पष्ट दर्शन-यह क्रम चलता रहता है। वासना
और कषाय (क्रोध, अभिमान, माया, लोभ) ये प्रात्मा से अन्य हैं। प्रात्मा को देखने वाला अन्य में रमण नहीं करता।
आत्मा को जानना ही सम्यग्ज्ञान है। आत्मा को देखना ही सम्यग्दर्शन है। आत्मा में रमण करना ही सम्यग्चारित्र है। यही मुक्ति का मार्ग है ।
अप्रमाद का दूसरा सूत्र है वर्तमान में जीना--क्रियमाण क्रिया से अभिन्न होकर जीना। वर्तमान क्रिया में तन्मय होने वाला अन्य क्रिया को नहीं देखता। जो अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पना में खोया रहता है, वह वर्तमान में नहीं रह सकता।
जो व्यक्ति एक क्रिया करता है और उसका मन दूसरी क्रिया में दौड़ता है, तब वह वर्तमान के प्रति जागरूक नहीं रह पाता। जागरूक भाव और तादात्म्य में यही घटित होता है।
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