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चित्त-समाधि : जैन योग
तब दीक्षा - पर्याय या अवस्था में छोटे मुनि द्वारा सावधान किये जाने पर या अवस्था में बड़े तथा श्रुत में विशिष्ट मुनि के द्वारा कहे जाने पर उसको अन्यथा न मानें ।
रातिणिण - रात्निक का शाब्दिक अर्थ हैं - दीक्षा - पर्याय में बड़ा । चूर्णिकार ने आचार्य, दीक्षा - पर्याय में ज्येष्ठ तथा प्रवर्तक, गणी, गणधर, गणावच्छेदक और स्थविर को 'रात्निक' शब्द के अन्तर्गत गिनाया है ।
वृत्तिकार ने दीक्षा - पर्याय में ज्येष्ठ तथा श्रुत में विशिष्ट मुनि को 'रात्निक' माना है । देखें - दसवेआलियं, ६ ।
समव्वएण- दीक्षा-पर्याय अथवा अवस्था में समान । इसका संस्कृत रूप 'समव्रतेन' और अर्थ सहदीक्षित किया है ।
थिरओ - इसका अर्थ है --प्रमाद के प्रति सावधान किये जाने पर प्रमाद को पुनः न दोहराना ।
णिज्जंतए — नीयमान का अर्थ है -- ले जाया जाता हुआ ।
जाता हुआ, अनुशासित किया
कोई उसे कहता है-भाई ! मुहूर्तमात्र के लिये अवलंबन
कोई व्यक्ति नदी की धारा में बहता जा रहा है । तुम वेग से बहते हुए इस काठ का या वृक्ष की शाखा का लो। तुम पानी में डूबने से बचकर पार पा जाओगे । ऐसा कहने पर वह उस पर कुपित होता है । और वैसा नहीं करता । वह व्यक्ति नदी में डूब मरता है, कभी उस पार नहीं जा पाता ।
इसी प्रकार प्रमादाचरण करने वाले मुनि को आचार्य बार-बार सावधान करते हैं और उसे मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर करने का प्रयत्न करते हैं । किन्तु वह कषाय के वशीभूत होकर उनके उपदेश को स्वीकार नहीं करता । अथवा अन्य मुनियों द्वारा सावधान किये जाने पर वह अहं से परिपूर्ण होकर सोचता है- ये छोटे और अल्पश्रुत मुनि भी मुझे सावधान कर रहे हैं - ऐसा व्यक्ति कभी संसार का पार नहीं पा
सकता ।
१८. ( सू० १।१४८ )
विणं समया सिट्ठे — व्युत्थित का अर्थ है - संयम के प्रतिकूल आचरण करने वाला । व्युत्थान चित्त की चंचल अवस्था है । पातंजल योगदर्शन में व्युत्थान संस्कार निरोध संस्कार का प्रतिपक्षी है । व्युत्थान धर्म की प्रधानता वाला व्युत्थित व्यक्ति संयम से विचलित हो जाता है, इसलिये उसकी संज्ञा व्युत्थित है । वह स्वतीर्थिक भी हो सकता है और परतीर्थिक भी ।
कोई मुनि प्रमाद का आचरण करता है । वह ईर्यासमिति का सम्यग् शोधन न करता हुआ त्वरित गति से चल रहा है । तब व्युत्थित व्यक्ति उसे कहता है - " मुने ! ऐसा चलना तुम्हारे लिये योग्य नहीं है, क्योंकि तुम्हारे आगमों में यह प्रतिपादित है कि
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