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चित्त-समाधि : जैन योग
कार्य
शक्ति) मिले और दीप्ति एवं पाचन हो, वह शरीर ।
कार्मणशरीर-कर्म-समूह से निष्पन्न अथवा कर्मविकार को कार्मण शरीर कहते हैं । तैजस और कार्मणशरीर सभी जीवों के होते हैं।
२५. शरीर पांच हैं-ौदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण । भिन्नभिन्न अपेक्षाओं से इनके अनेक वर्गीकरण होते हैं ।
स्थूलता और सूक्ष्मता की दृष्टि से - स्थूल
सूक्ष्म औदारिक, वैक्रिय, आहारक
तैजस, कार्मण । कारण और कार्य की दृष्टि से
कारण कार्मण
औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस । भवबर्ती और भवान्तरगामी की दृष्टि से-- भववर्ती
भवान्तरगामी औदारिक, वैक्रिय. पाहारक
तेजस, कार्मण साहचर्य और असाहचर्य की दृष्टि सेसहचारी
असहचारी वैक्रिय, आहारक, तेजस, कार्मण । औदारिक ।
औदारिक शरीर जीव के चले जाने पर भी टिका रहता है और विशिष्ट उपायों से दीर्घकाल तक टिका रह सकता है । शेष चार शरीर जीव से पृथक होने पर अपना अस्तित्व नहीं रख पाते, तत्काल उनका पर्यायान्तर (रूपान्तर) हो जाता है।
२६. निश्रास्थान-निश्रास्थान का अर्थ है-----मालम्बन स्थान, उपाकारकस्थान । मुनि के लिए पांच निश्रास्थान हैं। उनकी उपयोगिता के कुछएक संकेत वृत्तिकार ने दिए हैं, वे इस प्रकार हैं
१. षट्काय० पृथ्वी की निश्रा-ठहरना, बैठना, सोना, मल-मूत्र का विसर्जन आदि । • पानी की निश्रा-परिषेक, पान, प्रक्षालन, आचमन आदि । ० अग्नि की निश्रा-प्रोदन, व्यंजन, पानक, प्राचाम आदि । • वायु की निश्रा-अचित्त वायु का ग्रहण, दृति, भस्त्रिका प्रादि का उपयोग । ० वनस्पति की निश्रा--संस्तारक, पाट, फलक, प्रौषव आदि । ० त्रस की निश्रा-चर्म, अस्थि, शृंग तथा गोबर, गोमूत्र, दूध आदि । २. गण-गुरु के परिवार को गण कहा जाता है। गण में रहने वाले के विपुल
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