SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८५ ठाणे निर्जरा होती है विनय की प्राप्ति होती है, तथा निरंतर होने वाली सारणा वारणा से दोष प्राप्त नहीं होते । ३. राजा-राजा निवास्थान इसलिए है कि वह दुष्टों का निग्रह कर साधुओं को धर्म-पालन में प्रालंबन देता है । अराजकता - दशा में धर्म का पालन दुर्लभ हो जाता है । ४. गृहपति - वसति या उपाश्रय देनेवाला । स्थानदान संयम साधना का महान् उपकारी तत्त्व है । प्राचीन श्लोक में— 'धृतिस्तेन दत्ता मतिस्तेन दत्ता, गतिस्तेन दत्ता सुखं तेन दत्तम् । गुणी मागितेभ्यो वरेभ्यो मुनिभ्यो मुदा येन दत्तो निवासः ॥' जो मुनिको उपाश्रय देता है, उसने उनको उपाश्रय देकर वस्त्र, अन्न, पान, शयन, प्रासन आदि सभी कुछ दे दिए । ५. शरीर — कालीदास ने कहा है - शरीरमाद्यं खलु धर्म-साधनम् ।' शरीर से धर्म का स्राव होता है, जैसे-पर्वत से पानी का शरीरं धर्म- संयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीराच्छ्रवते धर्मः, पर्वतात् सलिलं यथा ॥ में एक ही वचन होता है । जैन न्याय में 'स्यात्' शब्द २७. एकवचन - मानसिक ज्ञान की भांति एक क्षण एक क्षण में कोई भी प्राणी दो भाषाएं नहीं बोल सकता । का प्रयोग इसी सिद्धान्त के आधार पर किया गया । वस्तु अनंत धर्मात्मक होती है । एक क्षण में उसके एक धर्म का ही प्रतिपादन किया जा सकता है । शेष अनंत धर्म प्रतिपादित रहते हैं । इसका तात्पर्य यह होता है कि मनुष्य वस्तु के एक पर्याय का प्रतिपादन कर सकता है, किन्तु समग्र वस्तु का प्रतिपादन नहीं कर सकता । इस समस्या को सुलझाने के लिये 'स्यात्' शब्द का सहारा लिया गया है। 'स्यात्' शब्द इस बात का सूचक है कि प्रतिपाद्यमान धर्म को मुख्यता देकर और शेष धर्मों की उपेक्षा करें, तभी वस्तु वाच्य होती है । एक साथ अनेक धर्मों की अपेक्षा से वस्तु अवक्तव्य हो जाती है । सप्तभंगी का चतुर्थ भंग इसी आधार पर बनता है । २८. एक मन - एक क्षण में मानसिक ज्ञान एक ही होता है । यह सिद्धान्त जैन- दर्शन को श्रागम - काल से ही मान्य रहा है । नैयायिक-वैशेषिक दर्शन में भी यह सिद्धान्त सम्मत है । इस सिद्धान्त के समर्थन में दोनों के हेतु भी समान हैं । जैन-दर्शन के अनुसार एक क्षण में दो उपयोग (ज्ञान-व्यापार ) एक साथ नहीं होते, इसलिये एक क्षण में मानसिक ज्ञान एक ही होता है। एक आदमी नदी में खड़ा है, नीचे से उसके पैरों को जल की ठंडक का संवेदन हो रहा है और ऊपर से सिर को घूप की उष्णता का संवेदन हो रहा है । इस प्रकार एक व्यक्ति एक ही क्षण में शीत और उष्ण दोनों स्पर्शो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy