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चित्त-समाधि : जन योग
का संवेदन करता है, किन्तु वस्तुतः यह सही नहीं है । क्षण और मन की सूक्ष्मता के कारण ऐसा प्रतीत होता है कि वह एक ही क्षण में शीत और उष्ण दोनों स्पर्शो का संवेदन करता है, किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है । जिस क्षण में शीत- स्पर्श का अनुभव होता है, उस क्षण में मन शीत- स्पर्श की अनुभूति में ही व्याप्त रहता है, इसलिये उसे उष्ण-स्पर्श की अनुभूति नहीं हो सकती और जिस क्षण में वह उष्ण-स्पर्श की अनुभूति में व्याप्त रहता है, उस क्षण उसे शीत-स्पर्श की अनुभूति नहीं हो सकती ।
एक क्षण में दो ज्ञानों और दो अनुभूतियों के न होने का कारण मन की शक्ति का सीमित विकास होना है । नैयायिक-वैशेषिक दर्शन के अनुसार एक क्षण एक ही ज्ञान और एक ही क्रिया होती है, इसलिये मन एक है । न्यायदर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम तथा वैशेषिक दर्शन के प्रणेता महर्षि कणाद मन की एकता के सिद्धान्त के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मन अणु है । यदि मन अणु नहीं होता, तो प्रतिक्षण मनुष्य को अनेक ज्ञान होते। वह अणु है, इसलिये वह एक क्षण में ही इन्द्रिय के साथ संयोग स्थापित कर सकता है । इन्द्रिय के साथ उसका संयोग हुए बिना ज्ञान होता नहीं, इसलिये वह एक क्षण में एक ही ज्ञान कर सकता है ।
२६. आत्मा का स्वरूप कर्म परमाणुत्रों से आवृत्त रहता है । उनके उपशम, क्षयउपशम और क्षय से वह (आत्म-स्वरूप ) प्रकट होता है ।
क्षय और उपशम- ये दोनों स्वतन्त्र अवस्थाएं हैं। क्षय-उपशम में दोनों का मिश्रण है। इसमें उदयप्राप्त कर्म के क्षय और उदयप्राप्त का उपशम- ये दोनों होते हैं, इसलिये क्षय-उपशम कहलाता है । इस अवस्था में कर्म के विपाक की अनुभूति नहीं होती ।
३०. बौद्ध-परम्परा में तेरह प्रकार के सुख-युगलों की परिकल्पना की गई है। उन युगलों में एक को अधम और एक को श्रेष्ठ माना है ।
१. गृहस्थ सुख, प्रव्रज्या सुख ।
२. कामभोग सुख, अभिनिष्क्रमण सुख । ३. लौकिक सुख, लोकोत्तर सुख ।
४. सास्रव सुख, अनास्रव सुख । ५. भौतिक सुख, अभौतिक सुख ।
६. श्रार्य सुख, अनार्य सुख । ७. शारीरिक सुख, चैतसिक सुख । ८. प्रीति सुख, प्रीति सुख ।
६. आस्वाद सुख, उपेक्षा सुख । समाधि सुख, समाधि सुख ।
१०.
११. प्रीति आलंबन सुख, अप्रीति प्रालंबन सुख । १२. प्रास्वाद प्रालंबन सुख, उपेक्षा ग्रालंबन सुख ।
१३. रूप श्रालंबन सुख, अरूप आलंबन सुख ।
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