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समवाओ
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८. अलोभ-निर्लोभता का अभ्यास करना । ६. तितिक्षा-कष्ट-सहिष्णुता, परीषहों पर विजय पाने का अभ्यास करना । १०. आर्जव-सरलता। ११. शुचि-पवित्रता, सत्य, संयम आदि का आचरण । १२. सम्यग्दृष्टि-सम्यग्दर्शन की शुद्धि । १३. समाधि-चित्त-स्वास्थ्य । १४. आचार----आचार का सम्यक् प्रकार से पालन करना, उसमें माया न
करना। १५. विनयोपग-विनम्र होना, अभिमान न करना । १६. धृतिमति-धैर्ययुक्त बुद्धि, अदीनता । १७. संवेग-संसार-वैराग्य अथवा मोक्ष की अभिलाषा । १८. प्रणिधि-अध्यवसाय की एकाग्रता ।
वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'मायाशल्य' किया है और उसका आचरण न करने का निर्देश दिया है । आवश्यकवृत्ति में भी 'पणिही' का अर्थ माया किया है और उसे न करने की बात कही है । किन्तु दशवैकालिक (८।१) के 'आयारपणिहिं लद्ध'-इस वाक्य के संदर्भ में 'पणिहि'-प्रणिधान का अर्थ चित्त की निर्मलता या समाधि होना चाहिए । अवधान, समाधान और प्रणिधान-ये तीनों समाधि के पर्यायवाची शब्द हैं। राग-द्वेष मुक्त भाव में चित्त को एकाग्र करने का अभ्यास प्रणिधि है । इसके दो भेद होते हैं-दुष्प्रणिधि और सुप्रणिधि । यहां सुप्रणिधि विवक्षित है ।
१६. सुविधि-सद् अनुष्ठान । २०. संवर-आस्रवों का निरोध । २१. आत्मदोषोपसंहार-अपने दोषों का उपसंहरण । २२. सर्वकामविरक्तता-समस्त विषयों से विमुखता । २३. प्रत्याख्यान-मूलगुण विषयक त्याग । २४. प्रत्याख्यान-उत्तरगुण विषयक त्याग । २५. व्युत्सर्ग-शरीर, भक्तपान, उपधि तथा कषाय का विसर्जन । २६. अप्रमाद-प्रमाद का वर्जन ।
२७. लवालव-सामाचारी के पालन में सतत जागरूक रहना । 'लव' शब्द कालवाची है । इसका अर्थ है-क्षण । 'लवालव' अर्थात् प्रतिक्षण अप्रमाद की साधना करना । यथालंदक मुनि निरंतर अप्रमाद की साधना करते हैं । वे क्षणभर के लिए भी प्रमाद नहीं करते और यदि कभी प्रमाद आ जाता है तो उसका तत्काल प्रायश्चित्त कर लेते हैं।
२८. ध्यान संवर योग–महाप्राण ध्यान की साधना करना । आवश्यक नियुक्ति में 'झाणसंवर योग' का अर्थ 'सूक्ष्म ध्यान' किया है । अवचूर्णि
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