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समवाओ
बत्तीसं जोगसंगहा पण्णत्ता, तं जहा
आलोयणा निरवलावे, आवईसु दढधम्मया । अणिस्सिओवहाणे य, सिक्खा निप्पडिकम्मया ।।१॥ अण्णातता अलोभे य, तितिक्खा अज्जवे सुती । सम्मदिट्टी समाही य, आयारे विणओवए ।।२।। धिईमई य संवेगे, पणिही सुविहि संवरे । अत्तदोसोवसंहारे, सव्व कामविरत्तया ॥३॥ पच्चक्खाणे विउस्सग्गे, अप्पमादे लवालवे । झाणसंवरजोगे य, उदए मारणंतिए ॥४॥ संगाणं च परिण्णा, पायच्छित्तकरणेत्ति य । आराहणा य मरणंते, बत्तीसं जोगसंगहा ।।५।।
सम० ३२।१ बत्तीस योग-संग्रह
जैन परम्परा में 'योग' शब्द मन, वचन और काया की प्रवृत्ति के लिए प्रयुक्त होता है । प्रस्तुत प्रसंग में 'योग' शब्द समाधि का वाचक है। यहां जिन बत्तीस योगों का संग्रहण किया है, वे सब समाधि के कारणभूत हैं। इसे हम 'समाधि सूत्र' भी कह सकते हैं। उत्तराध्ययन के उनतीसवें अध्ययन में इन में से अनेक सूत्रों का उल्लेख है, जैसे-संवेग, अनुप्रेक्षा, आलोचना, तितिक्षा, आर्जव, योग-प्रत्याख्यान, संवर, व्युत्सर्ग, अप्रमाद, अलोभ आदि सूत्र अर्थबोध तथा तात्पर्य की दृष्टि से अवश्य द्रष्टव्य हैं ।
बत्तीस योग-संग्रह ये हैं१. आलोचना-अपने प्रमाद का निवेदन करना। २. निरपलाप-आलोचित प्रमाद का अप्रकटीकरण ।। ३. आपत्काल में दृढ़धर्मता—किसी भी प्रकार की आपत्ति में दृढ़धर्मी बने
रहना। ४. अनिश्रितोपधान-दूसरों की सहायता लिए बिना तपः कर्म करना । ५. शिक्षा-सूत्रार्थ का पठन-पाठन तथा क्रिया का आचरण । ६. निष्प्रतिकता-शरीर की सार-संभाल या चिकित्सा का वर्जन । ७. अज्ञातता-अज्ञात रूप में तप करना, उसका प्रदर्शन या प्रख्यापन नहीं करना।
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