________________
२४६
चित्त-समाधि : जैन योग
कार ने इसको समझाने के लिए एक घटना का उल्लेख किया है - सिंबवर्धनपुर में मुडfor ( मुण्डिकामुक ) नाम का राजा राज्य करता था । आचार्य पुण्यभूति ने उसे श्रावक बनाया । उनका बहुश्रुत गीतार्थ शिष्य पुष्यमित्र खिन्न होकर कहीं अन्यत्र विहरण करने लगा । समीप आने वाले शिष्य अगीतार्थ थे । आचार्य ने एक बार पुष्यमित्र को बुला भेजा और सारी जानकारी दे 'सूक्ष्म ध्यान' की साधना में संलग्न हो गए । वे एक कमरे के भीतर निश्चेष्ट अवस्था में मृतवत् लेटे हुए थे । पुष्यमित्र द्वार पर बैठा रहता था । कमरे में प्रवेश निषिद्ध था । एक बार एक शिष्य ने छिपकर कमरे के भीतर झांका और उसने देखा कि आचार्य भूमि पर निश्चेष्ट पड़े हैं । उसने अन्य साधर्मिक साधुओं से कहा - आचार्य दिवंगत हो गए हैं । यह संवाद राजा तक जा पहुंचा। वह आचार्य का परम श्रद्धालु श्रावक था । उसने वहां आकर पूछताछ की। पुष्यमित्र ने सारी बात बताते हुए कहा कि आचार्य ध्यान-संलग्न हैं, मृत नहीं । किसी ने भी उसकी बात पर विश्वास नहीं किया । अनेक शिष्यों ने कहा - 'पुष्यमित्र सर्व - लक्षण - सम्पन्न आचार्य की देह से वेताल को साध रहा है । सबको यह बात यथार्थ लगी । आचार्य की मृत देह को श्मशान ले जाने के लिए शिविका तैयार की गई । पुष्यमित्र कमरे के भीतर गया और आचार्य के द्वारा पूर्व संकेतित अंगुष्ठ को दबाया । आचार्य सचेत हुए और बोले - 'आर्य ! तुमने मेरे ध्यान में व्याघात क्यों डाला ?' उसने शिष्यों द्वारा प्रचारित बात उन्हें कह सुनाई ।
२६. मारणांतिक उदय - मारणांतिक वेदना का उदय होने पर भी क्षुब्ध न होना, शांत और प्रसन्न रहना ।
३०. संग- परिज्ञा — आसक्ति का त्याग ।
३१. प्रायश्चित्तकरण-दोष - विशुद्धि का अनुष्ठान करना । ३२. मारणांतिक आराधना - मृत्युकाल में आराधना करना ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org