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________________ उत्तरज्झयणाणि भक्त-पान अवमौदर्य । भक्तपात अवमौदर्य के अनेक प्रकार हैं-१. पाठ ग्रास खाने वाला अल्पाहारी होता है, २. बारह ग्रास खाने वाला अपार्द्ध अवमौदर्य होता है, ३. सोलह ग्रास खाने वाला अर्द्ध अवमौदर्य होता है, ४. चौबीस ग्रास खाने वाला पौन अवमौदर्य होता है और ५. इकतीस ग्रास खाने वाला किंचित् अवमौदर्य होता है । ___ यह कल्पना भोजन की पूर्ण मात्रा के आधार पर की गई है । पुरुष के आहार की पूर्ण मात्रा बत्तीस ग्रास और स्त्री के पूर्ण आहार की मात्रा अट्ठाईस ग्रास है। ग्रास का परिमाण मुर्गी के अण्डे अथवा हजार चावल जितना बतलाया गया है । इसका तात्पर्य यह है कि जितनी भूख हो, उससे एक कवल तक कम खाना भी अवमौदर्य है। क्रोध, मान, माया, लोभ, कलह आदि को कम करना भावतः अवमौदर्य है । निद्रा-विजय, समाधि, स्वाध्याय, परम-संयम और इन्द्रिय-विजय-ये अवमौदर्य के फल हैं। ५२. श्लोक १६ गामे-जो गुणों को ग्रसित करे अथवा जहाँ १८ प्रकार के कर लगते हों, वह 'ग्राम' कहलाता है । ग्राम का अर्थ 'समूह' है। जहाँ-जहाँ जन समूह रहता था, उसका नाम ग्राम हो गया। ___ नगरे–जहाँ किसी प्रकार का कर न लगता हो, उसे 'नगर' कहा जाता है। अर्थशास्त्र में राजधानी के लिये 'नगर' या 'दुर्ग' और साधारण कस्बों के लिये 'ग्राम' शब्द प्रयुक्त हुअा है। किन्तु प्रस्तुत श्लोक में राजधानी का प्रयोग भी हुमा है । इससे जान पड़ता है कि नगर बड़ी बस्तियों का नाम है, भले फिर वे राजधानी हों या न हों। निगमे—व्यापारियों का गांव; वह बस्ती जहाँ व्यापारी रहते हैं । आगरे-खान का समीपवर्ती गांव । पल्ली-बीहड़ स्थान में होने वाली बस्ती, चोरों का गांव । ५३. भिक्खायरियं ___ यह बाह्य-तप का तीसरा प्रकार है । इसका दूसरा नाम 'वृत्ति-संक्षेत्र' या वृत्तिपरिसंख्यान' है । अष्ट प्रकार के गोचरागों, सात एषणाओं तथा अन्य विविध प्रकार के अभिग्रहों के द्वारा भिक्षा-वृत्ति को संक्षिप्त किया जाता है। गोचराग्र के आठ प्रकार १. पेटा---पेटा की भांति चतुष्कोण घूमते हुए (बीच के घरों को छोड़ चारों दिशाओं में समणि स्थित घरों में जाते हुए) 'मुझे भिक्षा मिले तो लूं अन्यथा नहींइस संकल्प से भिक्षा करने का नाम पेटा है । २. अर्द्ध पेटा-अर्द्ध-पेटा की भांति द्विकोण घूमते हुए (दो दिशात्रों में स्थित गृहश्रेणि में जाते हुए) 'मुझे भिक्षा मिले तो लू, अन्यथा नहीं-इस संकल्प से भिक्षा करने का नाम अर्द्ध पेटा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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