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चित्त-समाधि : जैन योग
है जिससे प्रहार और श्रायु एक साथ ही समाप्त हों। उस वर्ष के अन्तिम चार महीनों में मुंह में तेल भरकर रखा जाता है । मुखयंत्र विसंवादी न हो- नमस्कार मंत्र श्रादि का उच्चारण करने में असमर्थ न हो, यह उसका प्रयोजन है ।
संलेखना का अर्थ है - छीलना कृश करना | शरीर को कृश करना — यह द्रव्य (बाह्य) संलेखना है । कषाय को कृश करना - वह भाव संलेखना है ।
प्राचार्य शिवकोटि ने छह प्रकार के बाह्य तप को बाह्य-संलेखना का साधन माना है । संलेखना का दूसरा क्रम एक दिन उपवास और दूसरे दिन वृत्ति परिसंख्यान तप है । बारह भिक्षु प्रतिमाओं को भी संलेखना का साधन माना है । शरीर संलेखना के इन अनेक विकल्पों में प्राचाम्ल तप उत्कृष्ट साधन है । संलेखना करने वाला बेला, तेला, चौला, पंचौला प्रादि तप करके पारण में मित और हल्का प्रहार करता है । भक्त-परिज्ञा का उत्कृष्ट काल १२ वर्ष का है । उसका क्रम इस प्रकार है
१. प्रथम चार वर्षों में विचित्र अर्थात् अनियत काय - क्लेशों के द्वारा शरीर कृश किया जाता है ।
२. दूसरे चार वर्षों में विकृतियों का परित्याग कर शरीर को सुखाया जाता है । नौवें और दसवें वर्ष में प्राचाम्ल और विकृति-वर्जन किया जाता है ।
३.
४. ग्यारहवें वर्ष में केवल प्राचाम्ल किया जाता है ।
५. बारहवें वर्ष की प्रथम छमाही में प्रविकृष्ट तप-उपवास, बेला आदि किया जाता है ।
६. बारहवें वर्ष की दूसरी छमाही में विकृष्ट तप-तेला, चौला श्रादि किया जाता है।
दोनों परम्पराओं में संलेखना के विषय में थोड़ा क्रम-भेद है, किन्तु यह विचारणीय नहीं है । आचार्य शिवकोटि के शब्दों में संलेखना के लिये वही तप या उसका क्रम अंगीकार करना चाहिये जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और शरीर धातु के अनुकूल हो । जिस प्रकार शरीर का क्रमश: संलेखना ( तनूकरण हो) वही प्रकार अंगीकरणीय है ।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार में उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढ़ापा और असाध्य रोग उत्पन्न होने पर धर्म की आराधना के लिये शरीर त्यागने को 'संलेखना' कहा गया है । ५१. श्रोमोयरिय
यह बाह्य तप का दूसरा प्रकार है । इसका अर्थ है 'जिस व्यक्ति की जितनी श्राहार-मात्रा है, उससे कम खाना ।' यहाँ इसके पाँच प्रकार किये गये हैं- १. द्रव्य की दृष्टि से श्रवमौदर्य, २. क्षेत्र की दृष्टि से प्रवमौदर्य, ३. काल की दृष्टि से अवभौदर्य, ४. भाव की दृष्टि से अवमौदर्य और ५ पर्यव की दृष्टि से श्रवमौदर्य |
श्रपपातिक में इसका विभाजन भिन्न प्रकार से है – १. द्रव्यतः प्रवमौदर्य और २. भावतः अवमौदर्य | द्रव्यतः मौदर्य के दो प्रकार हैं- १. उपकरण अवमौदर्य और २
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