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________________ १४० चित्त-समाधि : जैन योग २०. (सू० १११४।१०) अमूढा- इसका अर्थ है-सही मार्ग का जानकार । वह पथदर्शक जो सही-सही जानता है कि कौन-सा मार्ग किस ओर जाता है । मग्गाणुसासंति-यहां दो पदों—मग्ग + अणुसासंति में संधि हुई है । इसका अर्थ है कि पथदर्शक उस दिग्मूढ़ पथिक को सही मार्ग दिखाता है। वह कहता है-तुम इस मार्ग से चलो, अपने गन्तव्य तक पहुंच जाओगे । यह मार्ग तुम्हारे लिये हितकर और क्षेमकर है । इस मार्ग में फलों से लदे वृक्ष तथा स्थान-स्थान पर जल के सरोवर हैं। इस मार्ग पर चलते हुए तुम्हें भूख-प्यास से पीड़ित नहीं होना पड़ेगा। सम्मऽणसासयंति—यहां दो पदों-सम्म+अणुसासयंति में संधि हुई है । चूर्णिकार ने सम्यक् का अर्थ ऋजु और अनुशासना का अर्थ-मार्गोपदेशना किया है । २१. (सू० १११४।११) एतोवमं ....."उवणेइ सम्म- गन्तव्य स्थान प्राप्त कर लेने पर दिग्मूढ़ व्यक्ति अपने मार्गदर्शक की कुछ विशेष पूजा करता है, उसका सम्मान करता है फिर चाहे पथदर्शक चाण्डाल, पुलिन्द, गन्द, गोपाल आदि ही क्यों न हो और स्वयं उनसे विशिष्ट जाति या बलोपेत भी क्यों न हो । वह यह सोचता है-इस पथदर्शक ने मुझे दुर्ग आदि दुर्लघ्य स्थानों तथा हिंस्र पशुओं के भय से बचाकर निर्विघ्न रूप से गन्तव्य तक पहुंचाया है । मुझे इसके प्रति विशेष कृतज्ञ होना चाहिये । इसने जो मेरी सहायता की है, उससे भी अधिक मैं इसे कुछ दूं-ऐसा सोचकर वह उस मार्गदर्शक को वस्त्र, अन्न, पान तथा अन्य भोग्य-सामग्री स्वयं देता है। यह एक दृष्टांत है। धर्म के क्षेत्र में भी साधक के लिये अपने मार्गदर्शक के प्रति विशेष पूजा का व्यवहार करणीय है। अपने आचार्य को आहार आदि लाकर देना द्रव्य पूजा है । उनकी भक्ति और गुणानुवाद करना भावपूजा है। प्रस्तुत श्लोकगत अर्थ को भलीभांति समझकर मुनि उसको अपने पर घटित करे । वह यह सोचे—गुरु ने अपने सद् उपदेशों के द्वारा मुझे मिथ्यात्व रूपी वन से तथा जन्म-मरण आदि अनेक उपद्रव-बहुल अवस्थाओं से बचाया है। ये मेरे परम उपकारी हैं । मुझे इनके प्रति बहुत कृतज्ञ रहना चाहिये । अभ्युत्थान आदि विनय प्रदर्शित कर मुझे इनकी पूजा करनी चाहिये । मुनि चाहे चक्रवर्ती ही क्यों न रहा हो और आचार्य यदि तुच्छ जाति के भी हों, तो भी मुनि का कर्तव्य है कि वह आचार्य के प्रति पूर्ण कृतज्ञ रहे। दिग्मूढ़ मुनि को सत्पथ पर लाने वाले आचार्य उसके परमबन्धु होते हैं । चूर्णिकार ने दो पद्य उद्धृत किये हैं जो व्यक्ति जलते हुए घर में सोए हुए व्यक्ति को जगाता है, वह उसका परमबन्धु होता है। कोई अज्ञानी व्यक्ति विष-मिश्रित भोजन करता है और ज्ञानी उसे विष को बता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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