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________________ ठाणं १०६ की क्रमपरिपाटी का सम्यक् अवग्रहण और धारणा कर लेता है। वे कितने आगमों के ज्ञाता हैं ? उनकी प्रव्रज्या-पर्याय तपस्या से भावित है या अभावित ? उनकी ग्रहस्थ तथा व्रतपर्याय कितनी है ? शारीरिक बल की स्थिति क्या है ? वह क्षेत्र कैसा है ?--ये सारी बातें श्रमण उन प्राचार्य को पूछता है। उनके कथनानुसार तथा स्वयं के प्रत्यक्ष दर्शन से उनका अवधारण कर वह अपने प्रदेश में लौट आता है। वह अपने प्राचार्य के पास जाकर उसी क्रम से निवेदन करता है, जिस क्रम से उसने सभी तथ्यों का अवधारण किया था। ___ आचार्य अपने शिष्य के कथन को अवधान पूर्वक सुनते हैं और छेदसूत्रों (कल्प और व्यवहार) में निमग्न हो जाते हैं । वे पौर्वापर्य का अनुसंधान कर सूत्रगत नियमों के तात्पर्य की सम्यक् अवगति करते हैं। उसी शिष्य को बुलाकर कहते हैं—जायो, उन प्राचार्य को यह प्रायश्चित्त निवेदित कर आरो। वह शिष्य वहाँ जाता है और अपने प्राचार्य द्वारा कथित प्रायश्चित्त उन्हें सुना देता है । यह प्राज्ञाव्यवहार है। वृत्तिकार के अनुसार प्राज्ञाव्यवहार का अर्थ इस प्रकार है-दो गीतार्थ प्राचार्य भिन्न-भिन्न देशों में हों, वे कारणवश मिलने में असमर्थ हों, ऐसी स्थिति में कहीं प्रायश्चित्त आदि के विषय में एक-दूसरे का परामर्श अपेक्षित हो, तो वे अपने शिष्यों को गूढ़पदों में प्रष्टव्य विषय को निगृहित कर उनके पास भेज देते हैं। वे गीतार्थ आचार्य भी इसी शिष्य के साथ गूढ़पदों में ही उत्तर प्रेषित कर देते हैं । यह प्राज्ञाव्यवहार है। ४. धारणा-व्यवहार—किसी गीतार्थ प्राचार्य ने किसी समय किसी शिष्य के अपराध की शुद्धि के लिए जो प्रायश्चित्त दिया हो, उसे याद रखकर, वैसी ही परिस्थिति में उसी प्रायश्चित्त-विधि का उपयोग करना धारणा-व्यवहार कहलाता है। अथवर वैयावृत्य आदि विशेष प्रवृत्ति में संलग्न तथा अशेष छेदसूत्र को धारणा करने में असमर्थ साधु को कुछ विशेष-विशेष पद उद्धृत कर धारणा करवाने को धारणा-व्यवहार कहा जाता है। उद्धारणा, विधारणा, संधारणा और संप्रधारणा-~ये धारणा के पर्यायवाची शब्द हैं। १. उद्धारणा—छेदसूत्रों से उद्धृत अर्थपदों को निपुणता से जानना। २. विधारणा–विशिष्ट अर्थपदों को स्मृति में धारण करना। ३. संधारणा–धारण किये हुए अर्थपदों को आत्मसात् करना । ४. संप्रधारणा–पूर्ण रूप से अर्थपदों को धारण कर प्रायश्चित्त का विधान करना। ___ जो मुनि प्रवचन-यशस्वी, अनुग्रहविशारद, तपस्वी, सुश्रुत, बहुश्रुत, विनय और औचित्य से युक्त वाणी वाला होता है, वह यदि प्रमादवश मूलगुणों या उत्तरगुणों में स्खलना कर देता है, तब पूर्वोक्त तीन व्यवहारों के अभाव में भी, प्राचार्य छेदसूत्रों से अर्थपदों को धारण कर उसे यथायोग्य प्रायश्चित्त देते हैं। वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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