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________________ ११० चित्त-समाधि : जैन योग भाव से छेदसूत्र के अर्थ का सम्यग् पर्यालोचन कर, प्राग्तन, धीर, दान्त और प्रलीन मुनियों द्वारा कथित तथ्यों के आधार पर प्रायश्चित्त का विधान करते हैं। यह धारणा. व्यवहार कहलाता है। यह भी माना जाता है कि किसी ने किसी को पालोचना शुद्धि करते हुए देखा। उसने यह अवधारण कर लिया कि इस प्रकार के अपराध के लिए यह शोधि होती है । परिस्थिति उत्पन्न होने पर वह उसी प्रकार का प्रायश्चित्त देता है तो वह धारणाव्यवहार कहलाता है। ___ कोई शिष्य प्राचार्य की वैयावृत्य में संलग्न है या गण में प्रधान शिष्य है या यात्रा के अवसर पर प्राचार्य के साथ रहता है. वह छेदसूत्रों के परिपूर्ण अर्थ को धारण करने में असमर्थ होता है। तब आचार्य उस पर अनुग्रह कर छेदसूत्रों के कई अर्थ-पद उसे धारण करवाते हैं । वह छेदसूत्रों का अंशतः धारक होता है । वह भी धारणा-व्यवहार का संचालन कर सकता है। ५. जीत-व्यवहार-किसी समय किसी अपराध के लिए प्राचार्यों ने एक प्रकार का प्रायश्चित्त-विधान किया । दूसरे समय में देश, काल, धृति, संहनन, बल आदि देख. कर उसी अपराध के लिए जो दूसरे प्रकार का प्रायश्चित्त-विधान किया जाता है, उसे जीत-व्यवहार कहते हैं। किसी प्राचार्य के गच्छ में किसी कारणवश कोई सूत्रातिरिक्त प्रायश्चित्त प्रवर्तित हुप्रा और वह बहुतों द्वारा, अनेक बार अनुवर्तित हुप्रा । उस प्रायश्चित्त-विधि को 'जीत' कहा जाता है। शिष्य ने यह प्रश्न उपस्थित किया कि चौदहपुर्वी के उच्छेद के साथ-साथ आगम, श्रुत, आज्ञा और धारणा—ये चारों व्यवहार भी व्यवच्छिन्न हो जाते हैं । क्या यह सही प्राचार्य ने कहा-'नहीं, यह सही नहीं है। केवली, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी, दशपूर्वी और नौपूर्वी—ये सब आगमव्यवहारी होते हैं, कल्प और व्यवहार सूत्रधर श्रुतव्यवहारी होते हैं; जो छेदसूत्र के अर्थधर होते हैं, वे आज्ञा और धारणा से व्यवहार करते हैं। आज भी छेदसूत्रों के सूत्र अर्थ को धारण करने वाले हैं, अतः व्यवहार-चतुष्क का व्यवच्छेद चौदहपूर्वी के साथ मानना युक्तिसंगत नहीं है।' जीतव्यवहार दो प्रकार का होता है—सावध जीतव्यवहार और निरवद्य जीतव्यवहार । वस्तुतः निरवद्य जीतव्यवहार से ही व्यवहरण हो सकता है, सावद्य से नहीं । परन्तु कहीं-कहीं सावध जीतव्यवहार का प्राश्रय भी लिया जाता है। जैसे—कोई मुनि ऐसा व्यवहार कर डालता है कि जिससे समुचे श्रमण-संघ की अवहेलना होती है और लोगों में तिरस्कार उत्पन्न हो जाता है। ऐसी स्थिति में शासन और लोगों में उस अपराध की विशुद्धि की अवगति कराने के लिए अपराधी मुनि को गधे पर चढ़ाकर सारे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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