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जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा
४५ मुखर लिये। आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा जो क्रान्ति की गयी वह मुख्य रूप से परम्परागत धर्म के स्थान पर आध्यात्मिक धर्म के सन्दर्भ में थी। यद्यपि उन्होंने 'अष्टपाहड' में विशेष रूप से 'चारित्रपाहुड', 'लिंगपाहुड' आदि में आचार शैथिल्य के सन्दर्भ में भी अपने स्वर मुखरित किये थे, किन्तु ये स्वर अनसुने ही रहे, क्योंकि परवर्ती काल में भी यह भट्टारक परम्परा पुष्ट ही होती रही। आचार्य कुन्दकुन्द के पश्चात् उनके ग्रन्थों के प्रथम टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र ने जैनसंघ को एक आध्यात्मिक दृष्टि देने का प्रयत्न किया जिसका समाज पर कुछ प्रभाव पड़ा किन्तु भट्टारक परम्परा भी यथावत रूप में महिमामंडित होती रहा। इसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में भी सुविहितमार्ग, संविग्नपक्ष आदि के रूप में यति परम्परा के विरोध में स्वर मुखरित हुये और खरतरगच्छ, तपागच्छ आदि अस्तित्व में भी आये, किन्तु ये सभी यति परम्परा के प्रभाव से अपने को अलिप्त नहीं रख सके।
श्वेताम्बर परम्परा में ८वीं शती से चैत्यवास का विरोध प्रारम्भ हुआ था। आचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रन्थ 'सम्बोधप्रकरण' के द्वितीय अध्याय में इन चैत्यवासी यतियों के क्रियाकलापों एवं आचार शैथिल्य पर तीखे व्यंग किये और उनके विरुद्ध क्रान्ति का शंखनाद किया, किन्तु युगीन परिस्थितियों के परिणामस्वरूप हरिभद्र की क्रान्ति के ये स्वर भी अनसुने ही रहे। यतिवर्ग सुविधावाद, परिग्रह संचय आदि की प्रवृत्तियों में यथावत जुड़ा रहा। हमें ऐसा कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि आचार्य हरिभद्र की इस क्रान्तधर्मिता के परिणामस्वरूप चैत्यवासी यतियों पर कोई व्यापक प्रभाव पड़ा हो। श्वेताम्बर परम्परा में चैत्यवास का सबल विरोध चन्द्रकुल के आचार्य वर्द्धमानसूरि ने किया। उन्होंने चैत्यवास के विरुद्ध सर्वप्रथम सुविहित मुनि परम्परा की पुनः स्थापना की। यह परम्परा आगे चलकर खरतरगच्छ के नाम से विख्यात हुई। इनका काल लगभग ११वीं शताब्दी माना जाता है। यद्यपि सुविहित मार्ग की स्थापना से आगम पर आधारित मुनि आचार- व्यवस्था को नया जीवन तो प्राप्त हुआ, किन्तु यति परम्परा नामशेष नहीं हो पायी। अनेक स्थलों पर श्वेताम्बर यतियों का इतना प्रभाव था कि उनके अपने क्षेत्रों में किसी अन्य सुविहित मुनि का प्रवेश भी सम्भव नहीं हो पाता था। चैत्यवासी यति परम्परा तो नामशेष नहीं हो पायी, अपितु हुआ यह कि उस यति परम्परा के प्रभाव से संविग्न मुनि परम्परा पुन: पुन: आक्रान्त होती रही और समय-समय पर पुनः क्रियोद्धार की आवश्यकता बनी रही। इस प्रकार हम देखते हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में प्रत्येक सौ-डेढ़ सौ वर्ष के पश्चात् पुन: पुन: आचार शैथिल्य के विरुद्ध और संविग्न मार्ग की स्थापना के निमित्त धर्म क्रान्तियाँ होती रहीं। खरतरगच्छ की धर्मक्रान्ति के पश्चात् अंचलगच्छ एवं तपागच्छ के आचार्यों द्वारा पुन: क्रियोद्धार किया गया और आगम अनुकूल मुनि आचार की स्थापना के प्रयत्न वि० सं० ११६९ में आचार्य आर्यरक्षित (अंचलगच्छ) तथा वि० सं० १२८५ में आचार्य जगच्चन्द्र (तपागच्छ) के द्वारा किया गया।
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