________________
३०२
स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास
१८३३ में उस पद पर लीम्बड़ी में विराजित हुये होंगे। वि० सं० २८४१ में घोरांजी में
आपका स्वर्गवास हो गया।
आचार्य श्री कानजी स्वामी
आपका जन्म वि०सं० १८०१ में बढ़वाण (भावसार ) में हुआ। वि० सं० १८१२ में आप दीक्षित हुये । वि० सं० १८४५ में लीम्बड़ी में आप गादीपति हुये। मेरी समझ से यदि मुनि श्री हीराजी स्वामी के स्वर्गवास का वर्ष वि०सं० १८४१ मानते हैं तो कानजी स्वामी के गादीपति होने का वर्ष वि०सं० १८४१ होना चाहिए। आचार्य हस्तीमलजी ने भी अपनी पुस्तक 'जैन आचार्य चरितावली' में १८४१ ही माना है । सायला में वि० सं० १८५४ में आपका स्वर्गवास हो गया।
शासनोद्धारक आचार्य श्री अजरामर स्वामी
आपका जन्म वि० सं० १८०९ में जामनगर के निकटस्थ ग्राम पडाणा में हुआ। आपके पिता का नाम श्री माणिकचंद भाई शाह व माता का नाम श्रीमती कुंकुबहन था । आपने पाँच वर्ष की उम्र में ही ध्यानपूर्वक प्रतिक्रमण करना सीख लिया था। माता द्वारा किये गये प्रतिक्रमण सुन-सुन कर प्रतिक्रमण याद कर लेना विलक्षण प्रतिभा का ही परिचायक है। संसार की असारता जानने के पश्चात् आपके मन में वैराग्य पैदा हुआ। वि०सं० १० १८१९ माघ सुदि पंचमी को पूज्य श्री हीराजी स्वामी के सान्निध्य में आप दोनों माता-पुत्र ने दीक्षा ग्रहण की और मुनि श्री कानजी स्वामी के शिष्य कहलाये । आपकी माता कुंकुबाई आर्या महासतीजी श्री जेठीबाई की शिष्या कहलाईं। १० वर्ष की उम्र में दीक्षा ग्रहण करने के उपरान्त मुनि श्री अजरामर स्वामी ने छ: वर्ष के अन्दर 'दशवैकालिक', 'उत्तराध्ययन', 'नन्दी', 'अनुयोगद्धार', 'वृहत्कल्प', 'व्यवहार', 'निशीथ', 'दशाश्रुतस्कन्ध', 'आचारांग' (प्रथम श्रुत स्कन्ध) आदि शास्त्रों को कंठस्थ कर लिया। आपने सूरत में लगातार छः चातुर्मास किये। इन छः वर्षों में आपने व्याकरण, काव्य, अलंकार, साहित्य, नाटक, चम्पू, छन्द, संगीत और ज्योतिष का अभ्यास किया, तदुपरान्त 'न्यायदीपिका मुक्तावली', 'न्यायावतार', 'रत्नकरावतारिका' और 'स्याद्वादरत्नाकर' आदि ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। अध्ययन के दौरान आपने कुछ शास्त्रों की प्रतिलिपि भी तैयार की थी जो लीम्बड़ी पुस्तक भण्डार में उपलब्ध है। आपकी विद्वता और आगम मर्मज्ञता से सकल संघ प्रभावित था। वि० सं० १८४५ में आपने एक साधु-सम्मेलन किया जिसमें सकल संघ को एक सूत्र में बाँधने पर बल देते हुए आचार्य श्री पंचायणजी द्वारा बनाये ये ३२ बल को प्रस्तुत किया, किन्तु यह सम्मेलन सफल नहीं हो पाया। फिर भी आपने अपने शिष्यों में बत्तीस बोल कायम रखा। आप एक उच्चकोटि के तपस्वी थे। मान, मद, ममत्व, लालसा, आसक्ति आदि दोषों से कोसों दूर व संतोष, समता, शान्ति, वैराग्य आदि सद्गुणों के खान थे। वि० सं० १८६५ में ५६ वर्ष की आयु में स्वास्थ्य अनुकूल न रहने पर आपने लीम्बड़ी में स्थिरवास कर लिया। आपके सुयोग से वहाँ घोरांजी निवासी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org