Book Title: Sthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Sagarmal Jain, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 493
________________ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास ४७४ श्री कौशलमुनिजी, मुनि श्री नवीनप्रज्ञजी, मुनि श्री युगप्रभजी, मुनि श्री जितेशमुनिजी, मुनि श्री मुकेशमुनिजी मुनि श्री अभिनन्दनमुनिजी, मुनि श्री अजीतमुनिजी और मुनि श्री विनोदमुनिजी। मुनि श्री शान्तिमुनिजी आपका जन्म राजस्थान प्रान्त के चित्तौड़गढ़ जिले के भेदसर नामक ग्राम में वि०सं० २००३ ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी तदनुसार २८ मई १९४६ को हुआ। आपके पिता का नाम श्री डालचन्दजी सुरपुरिया और माता का नाम श्रीमती लहराबाई था। बाल्यकाल से ही आप विलक्षण प्रतिमासम्पन्न हैं । तीक्ष्णबुद्धि होने के बावजूद भी आपका मन धार्मिक प्रवृत्तियों की ओर ही उन्मुख रहा । परिणामतः वि०सं० २०१९ फाल्गुन सुदि प्रतिपदा तदनुसार २४ फरवरी १९६३ को साधुमार्गी समताविभूति आचार्य प्रवर श्री नानालालजी के श्री चरणों में आपने आर्हती दीक्षा ग्रहण की। दीक्षोपरान्त आपने आचार्य प्रवर श्री के मार्गदर्शन में शास्त्रों व आगमों का गहन अध्ययन किया। ई० सन् १९९७ की समग्र चातुर्मास सूची के अनुसार आप द्वारा लिखित / रचित लगभग ५० ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। लेकिन प्रकाशित पुस्तकों की सूची अनुपलब्ध होने के कारण यहाँ उसका उल्लेख नहीं किया जा रहा है। ई० सन् १९९६ में आपने आचार्य श्री नानालालजी के गच्छ से निकलकर मुनि श्री विजयराजजी के साथ अखिल भारतीय साधुमार्गी जैन श्रावक संघ सम्प्रदाय की स्थापना की। जम्मू-काश्मीर, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, हिमाचलप्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उड़िसा आदि प्रान्त आपके विहार क्षेत्र हैं। *** आचार्य श्री मन्नालालजी सम्प्रदाय की परम्परा आचार्य श्री शिवलालजी एवं श्री हर्षचन्दजी के अलग-अलग होने के पश्चात् मुनि श्री चतुर्भुजजी अपने संघ के आचार्य बने । तत्पश्चात् उनके पाट पर मुनि श्री लालचंदजी बैठे। मुनि श्री लालचंदजी के पाट पर मुनि श्री केवलचंदजी (बड़े) पदासीन हुये। मुनि श्री केवलचंदजी (बड़े) के पाट पर मुनि श्री केवलचंदजी (छोटे) विराजित हुये। मुनि श्री केवलचन्दजी (छोटे) के पाट पर मुनि श्री रत्नचन्दजी आसीन हुये । मुनि श्री रत्नचन्दजी के पाट पर मुनि श्री मन्नालालजी आचार्य पद पर विभूषित हुये । यद्यपि यह परम्परा अलग चली किन्तु इस परम्परा ने अपने को हुक्मीसंघ से कभी अलग नहीं माना। किन्तु श्री रत्नचन्दजी के पश्चात् यह परम्परा हुक्मीसंघ से पृथक् हो गई। श्री मन्नालालजी को इस संघ का आचार्य घोषित किया गया। मुनि श्री हर्षचन्दजी से लेकर मुनि श्री रत्नचन्दजी तक का परिचय उपलब्ध नहीं हो सका है। आगे की पट्ट परम्परा निम्न प्रकार से है - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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