Book Title: Sthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Sagarmal Jain, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
________________
परिशिष्ट
५०१
तथा चतुर्थोद्देशके सूत्र मध्ये आखा कण निषेध्या छइ, ऐहनी चूर्णि मध्ये अपवादिं लेवा-वैद्य नइ उपदेशइं गिलाण भोगवइ, भात अणालाधइ मार्गे आखा कण भोगवइ तथा दुक्कालिं-“कसिणोसही गहणं करेज्ज" एहवा विरुद्ध डाह्यो होइ तो किम सद्दह ॥ २१ ॥
अथ पंचमोद्देशकई सूत्रई अनन्तकाय लेवो निषेधी छइ, एहनी चूर्णि मध्ये “सावयभयनिवारणट्ठ” उपधि सरीर वहवानई अर्थइं तेणई प्रतिनीक श्वानादि निवारवान अर्थे पहिलुं अचित्त डंडउ लीयइ, पछइ परित्र, पछइ अनन्तकाय नुं डंडूं लीइ - डाहु हुई ते विचारज्यो ॥२२॥
तथा षष्ठोद्देशके सूत्र मध्ये एकांति मैथुन निषेध छइ, एहनी चूर्णि मध्ये कहिउं छई - अपवादि साधु नई मैथुन नुं उदय थयुं, तिहारि अनुपशमति आचार्य नइ कहिवुं, अनइ न कहइ आचार्य नइ, तउ तेह नइ चउ गुरु प्रायश्चित्त, अनइ कह्या पछी आचार्य तेहनी चिंता न करइ, तउ आचार्य नइ चऊ गुरु प्रायश्चित्त इम मोहनीय उदयई नीवीयादिक करावइ । इम करावतां न रहंइ तउ मुक्तभोगी थिवर संघातई वेश्यादिक नइ पाडइ जइ शब्द सुणावइ, इम न रहइ तउ आलिंगनइ, इम न रहइ तु त्रिजंचणी संघातं ३ वार, पछइ मूई मनुष्यणी संघाति ३ वार, इम करतां न रहइ तउ स्वलिंगई परिलिंगइ स्युं सेवतउ गण थकी उवभुत्त थिवर संघातई अनेरी वसति थापीइ अंधारइ किट्टिसठ्ठीए मेलिज्जइ एवं तिणिवार न जति (यदि उवसमइ तु सुन्दर उवस्स चउ गुरु । इम चौथा व्रत नउ अपवाद चूर्णि मध्ये छइ । तेह (जेह) नइ परलोक नउ अरथ हुइ ते एहवा सूत्र विरुद्ध किम मानइ ? एहवा अघटताना करणहार नइ प्रायश्चित्त चउगुरु उपवास मांहिं, डाहु हुइ ते विचारयो ॥२३॥
अथ दशमोद्देशके सूत्रई अनन्तकाय खावी निषेध्यो छ। अनि एहनी चूर्णि मध्ये कारणइ भोगवइ, असिवादि जाहे मिश्र न लाभइ ताहे परित्तकाय संमिस्संमि गण्हइ, जाहे ते न लाभइ ताहे मिश्र न ताहे अनन्तकाय मिश्र गहइ । इहां चूर्णि मध्ये कारणइ अनन्तकाय खावी कही छइ, डाहु हुइ ते विचारज्यो ||२४||
अथ द्वादशमोद्देशकें सूत्र मध्ये सचित्त रूख चढवुं निषेध्युं छइ, अनइ एहवी चूर्णि मध्ये कारणई गिलान्न औषध नइ अर्थे चढइ, मार्गि अणसरतइ फल नइ अर्थे दुरूहइ, उदग नई अर्थइं पूरइ आयधट्ठा उपधि शरीर चोर राय भय स्वापद भय नइ विषइ तिहां पहिलं सचित्त वृक्षइं चढइ, पछइ मिश्रई, पछइ परित्त सचित्त, पछ अनन्तकाय नइ सचित्त वृक्षई चढई एवं कारणे जयणाए न दोषो । इहां चूर्णि मध्ये कारणे वृक्ष एहवइ अनन्तकाय नइ चढतां दोष नहीं । एहवा निशीथ चूर्णि सर्व किम प्रमाण करइ ॥ २५॥
तथा उत्तराध्ययन छट्ठा नी वृत्ति मध्ये चारित्रिउ चक्रवर्ती नुं कटक चूर्ण करइ ते अधिकार लिखीइ छई - लब्धिपुलाक जेह नइ देवेन्द्र ऋषि सरीखो ऋद्धि हुइ संघादिक कार्य उपनि चक्रवर्त्तिस्स बलवाहन चूर्ण करवा समर्थ - डाहु हुइ ते विचारज्यो ॥ २६ ॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International
Page Navigation
1 ... 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616