Book Title: Sthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Sagarmal Jain, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 523
________________ ५०४ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास छे के जो श्रमण माहण हिंसाई धर्म प्ररूपइं अनइ वली एहवं कहइ धर्मनइं काजिइं हिंसा करतां दोष नथी, ते तीर्थंकरे अनार्य वचन कह्यं । एतलइ एहवा वचनना बोलणहार अनार्य जाणिवा । ते अधिकार लिखीइ छइ “आवंती के आवंती लोअंसि समणा य माहणा य पुढो विवादं वयंति, से दि8 च णे, सुअं च णे, मयं च णे, विण्णायं च णे, उड्डे अहो 'तिरिअदिसासु सव्वतो सपडिलेहिअंच णे, सव्वे पाणा सब्जे जीवा सब्वे भूआ सव्वे सत्ता हंतव्वा, अज्झावेअव्वा, परिघेतव्वा, उद्दवेअव्वा, एत्यं पि जाणह णत्थित्थ दोसो, अणारियवयणमेअं, तत्थ जे ते आयरिया ते एवं वयासी- सेदुद्दिटुं च भे, दुस्सुअंच भे, दुमयं च भे, दुवित्रायं च भे । उड्ढे अहं तिरिअं दिवासु सव्वतो दुप्पडिलेहिअं च भे । जएणं तुम्भे एवं आइक्खह, एवं भासह, एवं परूवेह, एवं पण्णवेह, - सव्वे पाणा सव्वे भूआ सव्वे जीवा सब्वे सत्ता हंतव्वा अज्झावेअव्वा परितावेअव्वा, परिघेतव्वा, उद्दवेअव्वा, एत्थवि जाणह नत्थित्थ दोसो। अणारियवयणमेअं । वयं पुण एवमाइक्खामो, एवं भासेमो, एवं परूवेमो, एवं पनवेमो-सव्वे पाणा सव्वे भूआ सव्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्झावेअव्वा, ण परिघेतव्वा, ण परियावेअव्वा, ण उद्दवेअव्वा,, एत्थं पि जाणह नत्थित्थ दोसो। आरियवयणमेअं पुव्वनिकायसमयं, पतिअं। पुच्छिस्सामो हं थे पावाहुवाया किं सायं दुक्खं उदाहु असायं समिता पडिवनेया वि एवं बूआ। सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूआणं, सव्वेसिं जीवाणं, सव्वेसिं सत्ताणं अस्सायं अपरिणिव्वाणं महव्भयं दुक्खं त्ति बेमि।" ३. श्रीजु बोल हवइं त्रीजु बोल लिखीइ छइ। तथा जे सम्यक्त्व अध्ययनना बीजा उद्देसा नई धुरि कहिउं छइ- “जे आसवा ते परिसवा" ए आदिई च्यारि बोल तेहनु अर्थ लिखीइ छइ। जे आसवा कहितां जे स्त्री आदिक कर्मबन्ध नां कारण तेह ज वैराग्य नइ आणवइ करी परिसवा कहतां ते निर्जरा ना ठाम थाइ। तथा जे परिसवा ते आसवा-कहितां जे परिश्रवा ते साधु (नइ) निर्जरा ना ठाम ते दुष्ट अध्यवसाई करी आश्रव-कर्म-बन्ध ना ठाम थाइ। तथा “जे अणासवा” कहितां जे अनाश्रव व्रत-विशेष ते शुभ अध्यवसाइं करी 'अपरिसवा' कहितां ते निर्जरा ना ठाम थाई । कुंडरीक परिइं । तथा 'जे अपरिसवा ते अणासवा' कहितां जे अपरिश्रवा-अविरतिनां ठाम तेहज अविरित न ठाम हियइपाडुआं जाणी वैराग्यइं करी अध्यवसायविशेषिई अविरतिनइ छांडवइ करी अनाश्रव ना काम थाइ, एतलाइ कर्मबन्ध ना ठाम न था। तथा को (इ) एक एहना अर्थ फेरवी नइ कहइ छइ-'जे आसवा' कहितां जे धर्मनइं कारणई हिंसा करीइ तिहां निर्जरा थाइ। तथा वली केतलाएक इम कहइं छइं-जे धर्मनइं काजइं हिंसा कीजइ ते हिंसा न कही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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