Book Title: Sthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Sagarmal Jain, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
________________
परिशिष्ट
५२७ ४५. पिस्तालीसमु बोल.
हवइ पिस्तालीसमु बोल लिखइ छ।। श्री आचारांग ना बीजा अध्ययनइं बीजइ उद्देसइ श्री वीतरागे इम कहिउं, जे लोकइ एतलइ कारणइं आरम्भ करइ, अनइ साधु चारित्रीउ तु एतलइ कारणइं आरम्भ करइ नहीं, करावइ नहीं, अनुमोदइ नहीं, ते अधिकार लिखीइ छड्-“एत्थ सत्थे पुणो पुणो से आयबले से नायबले से मित्तबले से पेच्चबले से देवबले से रायबले से चोरबले से अतिथिबले से किविणबले से समणबले-इच्चेइएहि तिहिं विरूवरूवकज्जेहिं दंडसमायाणं सपेहाए भया कज्जति पावमोक्खोति मन्त्रमाणे, अदुवा आसंसाए। तं परित्राय मेहावी णेव सयं एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभेज्जा, णेव अन्नं च एतेहिं एतेहिं कज्जेहिं दण्डं समारम्भावेज्जा, एएहिं कज्जेहिं दण्डं समारम्भंतेवि ण च अण्णे समणुजाणेज्जा। एस मग्गे आयरिएहिं पवेदिते, जहेत्थ कसले णो वा लप्पिज्जासित्ति बेमि।" ए आलावा माहिं इम का जे"लोक संसारनइं हेतुई हिंसा करइ छइ अनइ मोक्षनइं हेतुई पणि हिंसा करइ छइ, अनइ साधु चारित्रीओ एणइं हिंसा करइ नहीं, करावइ नहीं, अनुमोदइ नहीं ।" तु जोउनइं आवड़ी हिंसा लोक मोक्षनई कारणइं कहई छई, ते केहनी देखाड़ी करइं छइं? साधु तु देखाडइ नहीं । डाहा हुइ ते विचारी जोज्यो, एह पिस्तालीसमु बोल। ४६. छइतालीसमु बोल
हवइ छइतालीसमु बोल लिखीइ छड्। तथा श्री आचारांग माहिं अध्ययन छठानइ उद्देसइ पांचमइ साधुनइ श्री वीतरागे इम कहिउं जे "श्रोतानई एह उपदेश देजे', ते अधिकार लिखीइ छइ-“पाईणं पडीणं दाहिणं उदीचीनं, आइखे विभायदिके वेदवी से उट्ठिएसु अणुट्ठिएसु वा ससमाणे सुपवदेए संति विरतिं उवसमं णिव्वाणं सोयवियं अज्जवियं मद्दवियं लाघवियं अणइवत्तियं सव्वेसिं पाणीणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अणुवीइ भिक्खु धम्ममाइक्खेज्जा, अणुवीइ भिक्खु घम्ममाइक्खमाणे णो अत्ताए ण आसादेज्जा नो अन्नाइं पाणाई भूयाइं जीवाइं सत्ताईं आसादेज्जा। “ए आलावानइं मेलई साधु चारित्रीओ जिहां जाइ तिहां एकान्त दयामइ उपदेश दिइ। पणि हिंसानु उपदेश न दिइ । एह छइतालीसमु बोल। ४७. सत्तालीसमु बोल
हवइ सत्तालीसमु बोल लिखीइ छइ। तथा श्री सिद्धान्त माहिं ठामि ठामि श्री जीवदया गाढ़ी सार प्रधान कही छइ, ते अधिकार लिखीइ छइ
एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्ठी अणारिया । असंकियाइ संकंति, संकियाइ असंकिणो ।। धम्मपन्नवणा जा सा तं तु संकति मूढ़गा ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616