Book Title: Sthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Sagarmal Jain, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 551
________________ ५३२ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास असायावेयणिज्जा कम्मा कज्जति । गोयमा! परदुक्खणयाए, परसोयणयाए, परशूरणियाए, परतिप्पणताए, परपिट्टणताए, परपरितावणताए, बहूणं पाणाणं जाव सत्ताणं दुक्खणयाए, भोयणताए, जाव परितावणयाए । एवं खलु गोयमा! जीवाणं अस्सायावेयणिज्जाणं कम्मां कजंति । एवं णेरइयाणं वि, एवं जाव वेमाणियाणं।” इति श्री भगवती शतक सातमइ। एह पंचासमु बोल। ५१. एकावन्नमु बोल हवइ एकावन्नमु बोल लिखीइ छइ। तथा जीवनाद तथा भोगोपभोगादि जीव वेऐ पणि अजीव न वेए, ते उपरि लिखीइ छइ-“रूवी भंते कामा, अरूवी कामा। गोयमा! रूवी कामा णो अरूवी कामा। सचित्ता णं कामा। गोयमा! सचित्ता वि कामा अचित्ता वि कामा। जीवा भंते कामा, अजीवा भंते कामा? गोयमा! जीवा वि कामा, अजीवा वि कामा। जीवाणं कामा! अजीवाणं कामा, णो अजीवाणं कामा। कतिविहाणं भन्ते कामा पन्नता? गोयमा! दुविहा कामा पण्णत्ता, तं जहा- सद्दा य रूवा य । रूवि भंते भोगा, अरूवि भोगा? गोयमा! रूवि भोगा णो अरूवि भोगा। सच्चित्ता भन्ते भोगा, अच्चिता भोगा? गोयमा! सच्चिता वि भोगा, अच्चिता वि भोगा । जीवा भन्ते भोगा, अजीवा भोगा? गोयमा! जीवा वि भोगा, अजीवा वि भोगा। जीवाणं भन्ते भोगा, अजीवाणं भोगा? गोयमा! जीवाणं भोगा, णो अजीवाणं भोगा। कतिविहा णं भन्ते भोगा पण्णता? गोयमा! तिविहा भोगा पनत्ता, तं जहा- गंधा, रसा, फासा । कतिविहा णं भन्ते कामभोगा पण्णत्ता? गोयमा! पंचविहा कामभोगा पनत्ता, तं जहा-सद्दा, रूवा, रसा, गंधा, फासा।” इति श्री भगवती सातमा शतकनउ सातमु उद्देसउ। एह एकावनमु बोल।' ५२. बावन्नमु बोल ____ हवइ बावत्रमु बोल लिखीइ छइ। तथा केवली जेहवी भाषा बोलइ, ते लिखीइ छइ-“रायगिहे जाव एवं वदासि, अनउत्थियाणं भन्ते एवं आइक्खंति, जाव परुति, एवं खलु केवली जक्खाएसेणं आतिक्खति, एवं खलु केवलीजक्खाएसेणं आतिढे समाणे आहच्च दो भासाओ मांसंति तं० मोसं वा सच्चामोसं वा। से कहमेअं भन्ते? एवं गोयमा! जणणं ते अण्णउत्थिया जाव जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमासु । अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि- नो खलु केवली जक्खाएसेणं आदिस्संति, नो खलु केवली जक्खाएसेणं आतिढे समाणे आहच्च दो भासाओ भासंति । तं० मोसं वा, सच्चामोसं वा । केवली णं असावज्जाओ अपरोवघाइआओ आहच्च दो भासाओ भासंति, सच्चं वा असच्चामोसं वा।" इति श्री भगवती अढारमा शतकनुं सातमा उद्देसानइ विषइ। एह बावनमुं बोल। ५३. पनमु बोल हवइ त्रेपनमु बोल लिखीइ छइ। तथा श्री वीतरागई जे तीर्थ कहिउं, तथा जे आलम्बन कहिया । तथा यात्रा कही ते लिखीइ छइ- “तित्थं भन्ति! तित्थं, तित्थंकरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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