Book Title: Sthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Sagarmal Jain, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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५०३
परिशिष्ट आवइ छइ”- एहवा कपट करवा कह्या छइ, तु ते सर्व प्रमाण किम कीज ॥ ३३ ॥
तथा बीजा बोलकेतला एक विघटता छइ, ते भणी नियुक्ति चउद पूर्वधर नी भाषी किम सद्दहीइ? ते भणी डाहइ मनुष्य इ सिद्धान्त ऊपरि रुचि करवी, जिम इह लोकई • परलोकइं सुख उपजइ सही ||३४|| छः
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अनइ पन्नवणां नी वृत्ति नइ करणहारइ "आउत ” शब्द नुं अर्थ कारण- फलाव्यं छइ ने मोट इ कारण इं झुंडूं बोलवं जिम निशीथ चूर्णि मध्ये पंच महाव्रत ना कारण कह्यां छइ, ते महाव्रत प्रार्थना नां कारण ॥ इति ए सर्व लुंकामती नी युक्ति लिखी छइ ।। प्रतिमा मानइ तेहनइ तो पंचांगी प्रमाण इ- सर्व युक्ति प्रमाण छइ । जाणवा ने हेतई लिख्युं छइ ।' १
'श्री लोकाशाह ना अट्ठावन बोल'
१. पहिलु बोल
श्री सिद्धान्त मांहिं मोक्षमार्ग नुं मूल कारण श्री सम्यक्त्व छइ । जेहनइ सम्यक्त्व तेहना तप नियम सर्वप्रमाण । ते सम्यक्त्व श्री आचारांग नइ चउथई श्री सम्यक्त्व अध्ययनइ लाभइ । ते अध्ययन लिखिइ छइ
"से बेमि जे अ अतीता जे अ पडुपन्ना जे अ आगमिस्सा अरहंता भगवंता ते सव्वे एवमाइक्खंति,एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एवं सव्वे परूवेंति । सव्वेपाणा भूआ, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता न हंतव्वा न अज्झावेअव्वा, न परिघेतव्वा, ण परितावे अव्वा, ण उद्दवेअव्वा, एस घम्मे सुद्धे, णितिए सासए समेच्च लोअं खेयनेहिं पवेइए, तं जहा - उट्ठिएसुवा, आणट्ठिएसु वा उवट्ठिएसु वा अणवट्ठिएसु वा उवरयदंडेसु वा अणवरयदंडेसुवा, सोवहिएसु वा अणोवहिएसु वा, संजोगरएसु वा, असंजोगरएसु वा, तव्वंतं, तहावेतं, अस्सिंवेतं पवच्च । तं आइन्नु ण णि ण णिक्खेवे । जाणित्तु धम्मं जथा तथा दिट्ठीहिं णिचैअं गणेज्जा । णो लोगस्सेसणं चरे । जस्स णत्थि इमा णाती अन्ना तस्स कओ सिआ । दिट्ठ सुतं मयं विन्नायं जं एयं परिकहिज्जइ । समेमाणा पलेमाणा पुणो- पुणो जातिं पकप्पेंति । अहो अ राओ अ जयमाणे, धीरे सया आगयपन्नाणे, पत्ते वहिआ पास अपमत्ते सया परिक्कमिज्जासि त्ति बेमि । "
एणई उद्देसई एहवुं कह्युं जो सब प्राण, भूत, जीव, सत्त्व न हणिवा । ए धर्म सूधउ। एतलइ दयाइं धर्म ते सूधउ । अनइ हिंसाई धर्म ते अशुद्ध जाणिवउं । एह पहिलु बोल |
२. बीजु बोल
हवइ बीजु बोल लिखीइ छ । तथा सम्यक्त्व अध्ययनई बीजइ उद्देसइ एहवुं कह्यं
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