Book Title: Sthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Sagarmal Jain, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 495
________________ ४७६ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास मुनि श्री सहस्रमलजी आपका जन्म वि० सं० १९५२ में टाँडगढ़ (मेवाड़) में पीतलिया गोत्रीय ओसवाल परिवार में हआ था। ऐसा कहा जाता है कि आप पहले तेरापंथ के आचार्य श्री कालूगणिजी के पास दीक्षित हुए थे, किन्तु जीवदया, सेवा-सुश्रुषा आदि को लेकर आचार्य श्री कालूगणिजी से मत-वैभित्र्यता होने के कारण आप तेरापंथ संघ को छोड़कर स्थानकवासी मुनि श्री देवीलालजी की निश्रा में वि०सं० १९७४ भाद्र शुक्ला पंचमी को आपने पुन: दीक्षा ग्रहण की । पठन-पाठन में आपकी विशेष रुचि थी। आपकी व्याख्यान शैली अद्भुत, आकर्षक व हृदयस्पर्शी थी। व्यवहार धर्म में आप कुशल और अनुशासनप्रिय थे। वि० सं० २००६ चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को नाथद्वारा में भव्य समारोह में आप आचार्य पद पर विभूषित हुए। कुछ वर्षों बाद संघ की एकता हेतु आपने आचार्य पद त्याग दिया और श्रमण संघ में मंत्री पद पर आसीन हो गये। वि०सं० २०१५ माघ शुक्ला पूर्णिमा के दिन रूपनगढ़ में आपका स्वर्गवास हो गया। __ आपके पश्चात् इस परम्परा में उपाध्याय श्री कस्तूचन्दजी संघ प्रमुख हुये और वर्तमान में प्रवर्तक श्री रमेशमुनिजी श्रमण संघ में हैं। मन्नालालजी की सम्प्रदाय के प्रभावी सन्त मुनि श्री रत्नचन्दजी आपका जन्म होलकर स्टेट के रामपुरा (भानपुरा) जिले के कंजार्डा नामक पहाड़ी गाँव के निवासी श्री दयारामजी भंडारी के यहाँ वि०सं० १८७८ के माघ महीने में हुआ वि०सं० १९०३ में आपका पाणिग्रहण संस्कार हुआ। कुछ वर्षों उपरान्त आपको तीन पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई। वि० सं० १९१४ में मुनि श्री राजमलजी अपनी साधु मण्डली के साथ कंजार्डा पधारे। मुनि श्री के सदुपदेशों से आपके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ और आपने अपनी पत्नी श्रीमती राजकुंवरबाई से आज्ञा लेकर वि०सं० १९१४ ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन अपने साले श्री देवीचन्दजी के साथ मुनि श्री राजमलजी की निश्रा में दीक्षा अंगीकार की। मुनि श्री राजमलजी के सानिध्य में आपने आगमों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। वि० सं० १९५० आषाढ़ द्वितीया को जावरा में आपका स्वर्गवास हो गया। मुनि श्री जवाहरलालजी आपका जन्म वि०सं० १९०३ के वसन्त ऋतु में कंजार्डा ग्राम में हुआ। आप मुनि श्री रत्नचन्दजी के प्रथम पुत्र थे । वि०सं० १९१९ में मुनि श्री चौथमलजी अपने शिष्यों सहित कंजार्डा पधारे । मंगल प्रवचन को सुनकर जवाहरलालजी के मन में वैराग्य पैदा हुआ और उन्होंने भरी सभा में यह घोषणा कर दी की मैं आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने का प्रत्याख्यान लेता हूँ। उनके द्वारा घोषित इस प्रत्याख्यान को सुनकर माता श्रीमती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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