Book Title: Sthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Sagarmal Jain, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 494
________________ ४७५ आचार्य हरजीस्वामी और उनकी परम्परा आचार्य श्री मन्त्रालालजी आपका जन्म वि० सं०१९२६ में बोहरा गोत्रीय ओसवाल श्री अमरचन्दजी के यहाँ हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती नानीबाई था। वि० सं० १९३८ आषाढ़ शुक्ला नवमी दिन मंगलवार को आप अपने पिता श्री अमरचन्दजी के साथ मुनि श्री उदयसागर जी द्वारा मुनि श्री रत्नचन्दजी की निश्रा में दीक्षित हुये। आप बचपन से ही तीक्ष्ण बुद्धि के थे। कहा जाता है कि दीक्षित होने के पश्चात् एक दिन में ५०-५० गाथायें/श्लोक कंठस्थ कर लिया करते थे। मुनि श्री उदयसागरजी के सानिध्य में आपने शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। आपकी विद्वता, समता भावना, संगठन क्षमता आदि अनेक गुणों से प्रभावित होकर ही चतुर्विध संघ ने आपको वि० सं० १९७५ वैशाख शुक्ला दशमी को जम्मू में आचार्य पद पर विभूषित किया। इस प्रकार आप हुक्मीसंघ की इस परम्परा के नवमें आचार्य बने। ऐसा कहा जाता है कि आचार्य श्री हस्तीमलजी ने भी आपकी सेवा में रहकर शास्त्रीय अध्ययन किया था। वि०सं० १९९० के अजमेर सम्मेलन में आपने भाग लिया था। वि० सं० १९९० आषाढ़ कृष्णा द्वादशी सोमवार के दिन आपका स्वर्गवास हो गया। आगे यह सम्प्रदाय आपके नाम से प्रसिद्ध हुई। आचार्य श्री खूबचन्दजी आपका जन्म वि० सं० १९३० कार्तिक शुक्ला अष्टमी दिन गुरुवार को निम्बाहेड़ा (चित्तौड़गढ़) में हुआ था। आपके पिताजी का नाम श्री टेकचन्दजी और माता का नाम श्रीमती गेन्दीबाई था। वि०सं० १९४६ मार्गशीर्ष पूर्णिमा को आपका विवाह हुआ। विवाह के छ: वर्ष पश्चात् वि० सं० १९५२ आषाढ़ शुक्ला तृतीया को मुनि श्री नन्दलालजी की निश्रा में आप उदयपुर में दीक्षित हुए। अपने गुरु श्री के चरणों में ही आपने आगम शास्त्रों का गहन अध्ययन किया । फलतः आपका संयमी जीवन दिन-प्रतिदिन निखरता गया। जिनशासन की महिमा को आपने जन-जन तक पहुँचाने का सफल प्रयास किया। वि०सं० १९९० माघ शुक्ला त्रयोदशी को मन्दसोर में आपको आचार्य पद प्रदान किया गया। मुनि श्री हजारीमलजी द्वारा लिखित 'त्रिमनि चरित्र' में आचार्य पद प्राप्त होने की तिथि फाल्गुन शुक्ला तृतीया और स्थान रतलाम बताया गया है। आपने भजन, लावणी आदि की रचना की थी, किन्तु उसमें आपने अपने नाम को गोपनीय रखा था। आपकी व्याख्यान शैली अद्भुत तथा गायनकला निराली थी जो श्रोत्राओं को मन्त्रमुग्ध कर देती थी। मुनि श्री कस्तूरचन्दजी आपके शिष्य हैं। आपके कई हस्तलिखित पन्ने संतों के पास उपलब्ध होते हैं। सरल और सुबोध भाषा में रचित आपकी कविताओं में अनुप्रास अलंकार की बहुलता है। मालवा, मेवाड़, मारवाड, दिल्ली, पंजाब आदि आपके विहार क्षेत्र रहे हैं। वि०सं० २००२ चैत्र शुक्ला तृतीया को ब्यावर में आपका स्वर्गवास हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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