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आचार्य हरजीस्वामी और उनकी परम्परा
४५९ यह परम्परा पुन: दो भागों में विभाजित हो गयी । मुनि श्री लालचन्दजी ने अलग होकर नये संघ का निर्माण किया जो 'हुक्मीचन्दजी की सम्प्रदाय' के नाम से जानी जाती है।
अचार्य दौलतरामजी और उनकी परम्परा आचार्य श्री दौलतरामजी
आपका जन्म कोटा के काला पीपल गाँव के वगैरवाल जाति में हुआ। वि० सं० १८१४ फाल्गुन शुक्ला पंचमी की आपने मुनि श्री मयारामजी की निश्रा में दीक्षा ग्रहण की। विलक्षण प्रतिभा के धनी आप श्री के संयमित जीवन व गुणों से प्रभावित होकर चतुर्विध संघ ने आपको आचार्य पद पर सशोभित किया। आपके उत्तम आचार-विचार से प्रभावित होकर सरावगी, माहेश्वरी, अग्रवाल, पोरवाल, वघेरवाल एवं ओसवाल आदि तीन सौ घरों ने आपकी गुरु-आम्नाय को स्वीकार किया था। कोटा एवं उसके आस-पास के निकटवर्ती क्षेत्र आपके विहार क्षेत्र रहे हैं। दिल्ली में आगम मर्मज्ञ श्री दलपतसिंहजी से आपकी भेंट हुई थी- ऐसा उल्लेख मिलता है। आपकी स्वर्गवास तिथि को लेकर दो मत हैं। मनि श्री प्रतापमलजी ने वि०सं० १९३३ पौष शुक्ला षष्ठी दिन रविवार को आपका स्वर्गवास माना है, जबकि श्री रमेशमुनिजी ने वि० सं० १८६० पौष शुक्ला षष्ठी की तिथि को स्वर्गस्थ तिथि मानी है। मुनि श्री प्रतापमलजी के कथन को प्रमाण की आवश्यकता है। आचार्य श्री लालचन्दजी
__ आपके जीवन के विषय में कोई भी ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता है। मात्र इतना ज्ञात होता है कि आप बूंदी के आंतड़ी (अंतरड़ी) गाँव के रहनेवाले थे। बचपन से ही आप चित्रकला में रुचि रखते थे। एक बार आप आतड़ी के ठाकुर के निवेदन पर रामायण सम्बन्धित चित्र दीवार पर बनाये थे। चित्र अच्छे बने थे, किन्तु दूसरे दिन अधूरे चित्र को पूरा करने के लिए जब चित्र की ओर दृष्टि डाली तो आँखे खुली की खुली रह गयी। हजारों मक्खियाँ रंग में चिपककर अपने प्राणत्याग चुकी थीं। निरपराध जीवों के प्राणत्याग ने आपके जीवन में नया मोड़ ला दिया। आपने हमेशा के लिए चित्रकारी छोड़ दी और आत्मकल्याण की राह पर चल पड़े। मुनि श्री दौलतरामजी से आपका समागम हुआ और आपने जैन आर्हती दीक्षा अंगीकार कर ली । इस प्रकार लालचन्द से मुनि श्री लालचन्दजी हो गये। ऐसा कहा जाता है कि आपने अपने संयमी जीवन में जिनशासन की खूब अलख जगायी। आचार्य श्री दौलतरामजी के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् आप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हये। आपके समय में 'कोटा सम्प्रदाय' में २७ महान पण्डित व ज्ञानी साधु-साध्वियों की संख्या १.मुनि श्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ, हमारी आचार्य परम्परा, पृष्ठ-२२३
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