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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास लावणियाँ आदि रचा करते थे। वि० सं० १९३३ पौष शुक्ला षष्ठी दिन रविवार को जावदनगर में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके विषय में इससे अधिक जानकारी प्राप्त नहीं होती है। आपके पश्चात् संघ दो भागों में विभाजित हो गया । एक संघ के प्रमुख आचार्य श्री शिवलालजी के शिष्य मुनि श्री हर्षमलजी के शिष्य मुनि श्री उदयचन्दजी (उदयसागरजी) हुये तो दूसरे संघ के प्रमुख आचार्य श्री के शिष्य मुनि श्री हर्षमलजी हुये। आचार्य श्री. उदयसागरजी.
____तीसरे पट्टधर के रूप में मुनि श्री उदयसागरजी आचार्य पट्ट पर विराजित हुये। आप विलक्षण प्रतिभा के धनी थे । अपने पूर्ववर्ती आचार्यों की भाँति आप भी कठोर संयमी तथा शिथिलाचार के घोर विरोधी थे। आपका जन्म वि०सं० १८७६ पौष मास में जोधपुर निवासी खिवेसरा गोत्रीय ओसवाल श्री नथमलजी के यहाँ हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती जीवाबाई था। माता-पिता से दीक्षा की अनुमति पाकर वि० सं० १८९८ चैत्र शुक्ला एकादशी दिन गुरुवार को मुनि श्री शिवलालजी के शिष्य मुनि श्री हर्षचन्द्रजी के सानिध्य में मुनि दीक्षा ग्रहण की। आचार्य श्री शिवलालजी के सान्निध्य में आपने शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। मालवा, राजस्थान आपका मुख्य विहार क्षेत्र रहा । आपको आचार्य पद पर कब मनोनीत किया गया इसकी तिथि उपलब्ध नहीं होती। परम्परा से इतनी जानकारी होती है कि मुनि श्री शिवलालजी के वि० सं० १९३३ में स्वर्गस्थ हो जाने पर आपको
आचार्य पद दिया गया। आपका स्वर्गवास वि०सं० १९५४ की माघ शुक्ला अष्टमी को हुआ। कहीं-कहीं अष्टमी के स्थान पर त्रयोदशी भी उल्लेख मिलता है। आचार्य श्री चौथमलजी
हुक्मी संघ के चौथे पट्टधर मुनि श्री चौथमलजी हुए। आपका जन्म पाली (राज०) में हुआ था। ऐसी जनश्रुति है कि बाल्यकाल से ही आप में धार्मिक प्रवृत्तियाँ अंगराईयाँ ले रही थीं। फलत: वि०सं० १९०९ चैत्र शुक्ला द्वादशी दिन रविवार को आपने संयमजीवन अंगीकार किया। आप ज्ञान, दर्शन, चारित्र के धनी होने के साथसाथ एक धोर तपस्वी और प्रखर वक्ता थे। वि०सं० १९५४ फाल्गुन कृष्णा चतुर्थी को आप संघ के आचार्य बने। मात्र तीन वर्ष तक आप आचार्य रहे। वि०सं० १९५७ कार्तिक शुक्ला नवमी को रतलाम में आपका स्वर्गवास हो गया। आचार्य श्री श्रीलालजी
__ हुक्मीसंघ के पाँचवें पट्टधर मुनि श्रीलालजी थे। आपका जन्म वि०सं० १९२६ आषाढ़ वदि द्वादशी को राजस्थान के टोंक में हुआ था। आपके पिता का नाम चुन्नीलाल जी और माता का नाम चाँदकुँवरजी (चाँदबाई) था। जनश्रुतियों से इतना ज्ञात होता है आपने अपनी माता से छ: वर्ष की उम्र में प्रतिक्रमण पाठ याद कर लिया था और अल्पवय में ही आपकी शादी भी हो गई थी। आपकी दीक्षा वि०सं० १९४५
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