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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास परिचायक था। वि० सं० १९८३ श्रावण कृष्णा द्वादशी को आपका स्वर्गवास हो गया। अपने संयमपर्याय में आपने ५६ चातुर्मास किये जिनमें ४५ चातुर्मास पूज्य श्री कजोड़ीमलजी और पूज्य आचार्य विनयचन्द्रजी के साथ किये। आपके स्वतन्त्र चातुर्मास ११ हुये जो इस प्रकार हैं- वि०सं० १९७३-जोधपुर, १९७४-भोपालगढ, १९७५जयपुर, १९७६-जयपुर, १९७७-पीपाड़, १९७८-अजमेर, १९७९-१९८३ तक जोधपुर। आचार्य श्री हस्तीमलजी
रत्नवंश परम्परा में आठवें पट्टधर के रूप में मुनि श्री हस्तीमलजी का नाम आता है, जिन्हें विशिष्ट प्रज्ञापुरुष के रूप में जाना जाता है। आपका जन्म वि० सं० १९६७ की पौष शुक्ला चतुदर्शी को हआ। आपके पिताजी का नाम श्री केवलचन्द बोहरा तथा माता का नाम श्रीमती रूपादेवी था। आप माँ के गर्भ में ही थे तभी आपके पिता का देहावसान हो गया। उधर वि० सं० १९७४ में प्लेग की महामारी ने आपके नाना श्री गिरधारीलालजी मुणोत के समस्त परिवार को भी समाप्त कर दिया। आपके बाल्यकाल में आपकी दादी भी समाधमरण को प्राप्त हो गयीं। इन सब घटनाओं ने माता श्रीमती रूपादेवी को संसार की असारता और क्षणभंगुरता का जैसे प्रत्यक्ष दर्शन करवा दिया हो। मन में वैराग्य अंकुरित हो ही रहा था कि उसी समय आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी की आज्ञानुवर्तिनी शिष्या महासती धनकुंवरजी पीपाड़ पधारी। महासतीजी के सम्पर्क में आने से बालक हृदय में धार्मिक कार्यों के प्रति जागरुकता और बढ़ गयी। अचानक एक दिन माता ने बालक हस्ती से दीक्षा ग्रहण करने की स्वीकृति माँगी। माँ को दीक्षा ग्रहण करते देख पुत्र के मन में दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा दुगुनी हो गयी। बालक हस्ती ने कहा- माँ यदि तुम दीक्षा ग्रहण करना चाहती हो तो मैं भी तुम्हारे साथ दीक्षा ग्रहण करुंगा। दोनों माता-पुत्र की इच्छाओं को जानकर आचार्य शोभाचन्दजी के शिष्य मुनि श्री हरखचन्द्रजी पीपाड़ पधारे। माता रूपा और पुत्र हस्ती ने मुनि श्री के समक्ष अपनी भावना व्यक्त की हम दोनों संयममार्ग पर चलने के लिए कटिबद्ध हैं। जब मुनि श्री पीपाड़ पधारे थे तब हस्तीमलजी आठ वर्ष के थे। माता ने उन्हें मुनि श्री के साथ ही उपाश्रय में रहने के लिए कहा। मुनि श्री हरखचन्द्रजी के निर्देशन में आपने अध्ययन शुरु कर दिया। वि० सं० १९७६ में मुनि श्री हरखचन्दजी का चातुर्मास अजमेर में हुआ। वहीं संस्कृत विद्वान् श्री रामचन्द्रजी से आपने संस्कृत की शिक्षा ग्रहण की तथा मुनि श्री हरखचन्दजी के निर्देशन में आपने आगमों का गहन अध्ययन किया। आपने अल्प समय में ही 'दशवैकालिक' के चार अध्याय तथा 'उत्तराध्ययन' के अट्ठाइसवें अध्याय को कण्ठस्थ कर लिया। वि०सं० १९७७ माघ शुक्ला द्वितीया को श्री चौथमलजी, ब्यावर निवासिनी बहन अमृतकुंवरजी व हस्तीमलजी की दीक्षा आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी की निश्रा में अजमेर में सम्पन्न हुई। इस दीक्षा समारोह में
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