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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास ताराचन्दजी आपके प्रमुख शिष्य थे। वि० सं० १९६३ चैत्र शुक्ला नवमी को रात्रि में ११.१० बजे अनशनपूर्वक आपका स्वर्गवास हो गया। आचार्य श्री नन्दलालजी
___मुनि श्री मोखमजी के पश्चात् मुनि श्री नन्दलालजी संघ के आचार्य हुए। आपका जन्म वि० सं० १९१९ चैत्र कृष्ण पक्ष में खाचरोंद में हआ। आपके पिता श्री नगाजी थे। लोग उन्हें नगीनजी भी कहा करते थे। युवा होने पर आपकी सगाई कर दी गयी। मुनि श्री मोखमसिंह के प्रशिष्य मुनि श्री गिरधारीलालजी (मुनि श्री हिन्दुमलजी के शिष्य) खाचरोंद पधारे। युवा अवस्था को प्राप्त नन्दलालजी मुनि श्री गिरधारीलाल के सम्पर्क में आये। मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ। भावना व्यक्त करने पर माता-पिता ने दीक्षा लेने से इन्कार कर दिया। लेकिन एक बार विराग उत्पन्न हो जाने पर राग का मार्ग कहाँ अच्छा लगता है । आप एक दिन चुपचाप घर छोड़कर मुनि श्री गिरधारीलालजी के पास बदनावर पहँच गये। किन्त मुनि श्री ने माता-पिता की आज्ञा के वगैर दीक्षा देने से इंकार कर दिया। ऐसा उल्लेख मिलता है कि मुनि श्री के इन्कार करने के बाद आपने करेमि भन्ते! कहकर स्वयं मुनि वेश धारण कर लिया। विभिन्न प्रकार से समझाने के बाद भी उन पर कोई असर नहीं पड़ा। यहाँ तक कि पिता के अनुग्रह पर कि किसी तरह उनका पुत्र वापस आ जाये बदनावर के राजकर्मचारियों ने नन्दलालजी को कपड़े उतार कर सिर पर पत्थर रखकर धूप में खड़ा कर दिया। फिर भी उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अन्ततः पिता ने दीक्षा की आज्ञा प्रदान कर दी। इस प्रकार वि०सं० १९४० वैशाख सुदि तृतीया को आपकी दीक्षा सम्पन्न हुई। दीक्षा के पश्चात् लगभग सोलह-सत्रह वर्ष तक आपने अपने गुरु श्री गिरधारीलालजी के साथ विहार किया। वि०सं० १९५७ मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी को आपके गुरुभ्राता मुनि श्री गम्भीरमलजी का स्वर्गवास हो गया। इसी वर्ष आप (मुनिश्री नन्दलाल जी) युवाचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। वि०सं० १९६३ चैत्र शुक्ला दशमी को रतलाम में आप संघ के आचार्य बनें । वि० सं० १९५९ श्रावणी पूर्णिमा को रतलाम में श्री किशनलालजी की दीक्षा आपके सानिध्य में हुई। १९६७-६८ में पाँच दीक्षाएं हुई। पाँच दीक्षित शिष्यों के नाम उपलब्ध नहीं होते हैं । वि०सं० १९६८ में आपका विहार मरुधरा की ओर हुआ। वि०सं० १९७० माघ कृष्णा प्रतिपदा को ब्यावर में शाजापुर शाखा के प्रमुख सन्त श्री पन्नालालजी, श्री केवलचन्दजी, श्री रतनचन्दजी आदि मुनियों से मिलकर आपने मर्यादा बाँधी और उनके साथ आपने साम्प्रदायिक एकता स्थापित करने का प्रयास किया। अपनी शारीरिक दुर्बलता को देखते हुए आपने उज्जैन परम्परा के भरतपुर उपशाखा के मुनि श्री माधवमुनिजी को वि०सं० १९७८ वैशाख शुक्ला पंचमी को युवाचार्य पद प्रदान किया। तदुपरान्त वि०सं० १९७९ में जब आपकी तबियत अधिक बिगड़ गयी तब आपने युवाचार्य श्री माधवमुनिजी, उपाध्याय श्री चम्पालालजी, स्थविर श्री ताराचन्दजी, श्री अमीऋषिजी, श्री दौलतऋषिजी (ऋषि सम्प्रदाय के) आदि सन्तों व श्रावक-श्राविकाओं की उपस्थिति में चतुर्विध संघ से
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