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१८७६
आचार्य मनोहरदासजी और उनकी परम्परा हरजीमलजी के समय से संघ में आचार्य परम्परा न चलकर गुरु-शिष्य परम्परा और पट्टधर परम्परा चली।
मुनि श्री हरजीमलजी द्वारा किये गये चातुर्मासों का विवरण वि० सं० १८६२ से उपलब्ध होता है, जबकि उन्होंने वि०सं० १८४० में दीक्षा ग्रहण की थी। इससे ऐसा प्रतीत है कि वि० सं० १८६२ में आप संघ के पट्ट पर आसीन हुये होंगे और अपना स्वतन्त्र चातुर्मास किया होगा। चातुर्मासों का विवरण इस प्रकार मिलता है - वि०सं०
वि०सं० स्थान १८६२
नारनौल १८७५
मालेरकोटला १८६३ भिवानी
बड़ौत १८६४ हाँसी
१८७७
नाभा १८६५ नारनौल १८७८
पटियाला १८६६
सिंघाणा १८७९
नारनौल १८६७
कुचामन १८८०
सिंघाणा १८६८ पक्कीगढ़ी
१८८१
चरखीदादरी १८६९ मालेरकोटला १८८२
अमृतसर १८७०
अमृतसर १८८३ चरखीदादरी १८७१
महेन्द्रगढ़ १८८४ सिंघाणा १८७२ पटियाला १८८५
बड़ौत १८७३
बड़ौत १८८६ धूलियागंज (आकरा) १८७४
जींद. मुनि श्री श्रीलालजी
__ आपके विषय में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। इतनी जानकारी उपलब्ध होती है कि आप मुनि श्री हरजीमलजी के शिष्य थे और वि० सं० १८४९ से पूर्व आप दीक्षित हुये थे। मुनि श्री रत्नचन्दजी
आपका जन्म वि०सं० १८५० भाद्र कृष्णा चतुर्दशी के दिन राजस्थान के शेखावटी में तत्कालीन खेतड़ी रियासत के समीप तातीजा ग्राम में हुआ। आपके पिता का नाम श्री गंगारामजी गुर्जर व माता का नाम श्रीमती सरूपादेवी था। वि० सं० १८६२ भाद्रपद शुक्ला षष्ठी दिन शुक्रवार को १२ वर्ष की उम्र में नारनौल में विशाल जनसमूह
१८८७
दिल्ली
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