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एकादश अध्याय आचार्य धर्मदासजी की मालव परम्परा
पूज्य श्री धर्मदासजी की मालवा परम्परा में कई महत्त्वपूर्ण आचार्य हुये हैं। मालवा परम्परा कई शाखाओं-उपशाखाओं में विभाजित है, जैसे- मुनि श्री रामचन्द्र जी की परम्परा जो 'उज्जैन शाखा' के रूप में जानी जाती है, मुनि श्री उदयचन्द्रजी की परम्परा जो 'रतलाम शाखा' के नाम से प्रसिद्ध है। इसी प्रकार मुनि श्री जसराजजी की परम्परा 'सीतामहू शाखा' के रूप में तो मुनि श्री गंगारामजी की परम्परा 'शाजापुर शाखा' के नाम से जानी जाती है।
मालवा परम्परा मूलत: उज्जैन शाखा है जिसके आध प्रवर्तक आचार्य श्री रामचन्द्रजी थे। आगे की सभी शाखायें इन्हीं से निकली हैं। यद्यपि मालवा जी जितनी भी शाखायें है सभी प्रायः धर्मदासजी को ही अपना प्रथम आचार्य मानती हैं । इनके बाद द्वितीय आचार्य के रूप में मुनि श्री रामचन्द्रजी का नाम आता है। इन्हीं के नाम से यह परम्परा भी चली आ रही है। परम्परा की दृष्टि से आचार्य श्री रामचन्द्रजी ही उज्जैन शाखा के प्रथम आचार्य कहे जायेंगे। यद्यपि पूज्य धर्मदासजी के बाद द्वितीय पट्ट को लेकर विद्वानों में कुछ मतभेद है। आचार्य हस्तीमल जी ने 'जैन आचार्य चरितावली' में द्वितीय पट्टधर के रूप में मुनि श्री रामचन्द्रजी का उल्लेख किया है। जबकि मनि श्री उमेशमनिजी ने आचार्य श्री उदयचन्दजी को द्वितीय पट्टधर स्वीकार किया है। उन्होंने 'प्रभुवीर पट्टावली'
और 'जैन आचार्य चरितावली' में उल्लिखित परम्परा जिसमें श्री रामचन्दजी को द्वितीय पट्टधर बताया गया है, को भ्रान्तपूर्ण बताते हुए मुनि श्री उदयचन्दजी को द्वितीय पट्टधर स्वीकार किया है । साथ ही यह भी कहा है कि आपके (उदयचन्दजी के) विषय में कुछ विशेष जानकारी नहीं मिलती है। मुनि श्री ऊदाजी के द्वारा वि०सं० १८२० ज्येष्ठ वदि एकादशी को लिखित एक प्रति प्राप्त है । ये ऊदाजी मुनि श्री उदयचन्दजी हो सकते हैं, पर वे ही थे- यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। श्री उमेश मुनि जी का यह उल्लेख भ्रम उपस्थित कर देता है तथा मुनि श्री उदयचंदजी के अस्तित्व को लेकर अनेक प्रश्नचिह्न खड़े करता है। क्योंकि आचार्य धर्मदासजी और इनके काल में पर्याप्त अन्तर है। मुनि श्री का यह कथन- 'उदयचन्दजी वस्तुतः धर्मदासजी के शिष्य नहीं थे। परन्तु आचार्य श्री के प्रशिष्य के प्रशिष्य थे। पूज्य श्री धर्मदासजी के शिष्य थे श्री हरिदासजी, उनके शिष्य थे साराजी, उनके शिष्य श्री खेमजी (श्री खेमराजजी) और उनके शिष्य थे उदयचन्दजी (ऊदोजी या उदेराजजी)। मुनि श्री के अनुसार यदि हम उदयचंदजी को धर्मदासजी के प्रशिष्य का प्रशिष्य मान भी लेते हैं तो कालक्रम का इतना अन्तर आ जायेगा
१. श्रीमद् धर्मदासजी और उनकी मालव शिष्य परम्परायें, पृ०-११५
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