________________
४००
मुनि श्री चम्पालालजी
पूज्य श्री रामरतनजी के स्वर्गस्थ हो जाने के पश्चात् आप इस शाखा के प्रमुख हुये, बाद में आप रतलाम शाखा के आचार्य हुए। आपके जीवन चरित्र पर रतलाम शाखा की चर्चा के अन्तर्गत प्रकाश डाला जायेगा।
स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास
इससे ऐसा लगता है कि पूज्य धर्मदासजी की मालव परम्परा में यद्यपि शाखा भेद हुये फिर भी पारस्परिक सौहार्द बना रहा और प्रधानता 'रतलाम शाखा' को दी जाती रही।
मुनि श्री केशरीमलजी
आपका जन्म वि०सं० १९२७ भाद्र पद कृष्णा अष्टमी के दिन हुआ । पन्द्रह वर्ष की उम्र में आपके माता-पिता ने आपकी सगाई कर दी, किन्तु आपका मन वैराग्य से ओत-प्रोत था। विवाह के एक मास पूर्व आपने अपनी भावना अपने माता-पिता को बताई । माता-पिता दो वर्षों तक आपको समझाते रहे किन्तु आप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अतः आपने चुपके से घर का त्याग कर दिया और उज्जैन में पूज्य श्री रामरतनजी के पास दीक्षित होने के लिए उपस्थित हो गये। मुनि श्री रामरतनजी ने पिता की आज्ञा के बिना दीक्षा देने से इन्कार कर दिया। बलदेव शर्मा द्वारा लिखित 'तपस्वी जीवन' नामक पुस्तक से यह ज्ञात होता है कि मुनि श्री द्वारा दीक्षा से इंकार करने पर आपने स्वयं वेष परिवर्तित कर लिया था।' अन्ततः मुनि श्री ने वि०सं० १९४४ माघ शुक्ला पंचमी बुधवार को आपको विधिवत दीक्षा प्रदान की। वि० सं० १९४८ में आपको 'तपस्वी' पद से विभूषित किया गया। वि०सं० १९४९ में पूज्य श्री रामरतनजी के देहावसान के पश्चात् आप अपने गुरु भ्राता के साथ दक्षिण की ओर विहार कर गये । वि० सं० १९८२ में आपका चातुर्मास करही (करी) में था । चातुर्मास के पश्चात् आप पाडल्या और सोमाखेड़ी पधारे। सोमाखेड़ी गाँव के बाहर ग्रामवासियों को मंगलपाठ सुनाकर आपने वि०सं० १९८२ पौष कृष्णा पंचमी को ५५ वर्ष की आयु में स्वर्ग के लिए महाप्रयाण किया ।
आपकी जिस तपश्चर्या से प्रसन्न होकर आचार्य श्री ने आपको 'तपस्वी' पद प्रदान किया था वह तपस्या भी आपकी अनोखी थी। अपने ३८ वर्ष के संयमपर्याय में आपने चार मास तक एकान्तर तप, साढे आठ मास तक बेले- बेले तप, पौने दो मास तक तेलेतेले तप, चौले - ९, पचौले - ११, छह - १, सात - १, अठाई - ११, नव-४ दस- ३, ग्यारह४, तेरह - १, सोलह - १, अठारह - १, तीस- १, इकतीस - ४, चौतीस - ३, पैतीस - १, सैतीस१, अड़तीस - १, उनचालिस - २, इकतालीस - २, पैतालीस - १, अड़तालीस - १, बावन१, उनहतर - १, सत्तर- १, छिहत्तर- १ और ८३ अभिग्रह किये।
१.
आज्ञा बिन मैं तुझ को भाई ! दीक्षा दे ॐ नाय
भेस पलट के स्वतः आपही, घर-घर गोचरी जाय ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
तपस्वी जीवन
www.jainelibrary.org