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__आचार्य धर्मदासजी की मालव परम्परा
४०५ । आपके दो शिष्य थे- मुनि श्री वदीचन्दजी (वृद्धिचन्द जी) और मुनि श्री भारमलजी। दो प्रशिष्य थे - मुनि श्री रूपचन्दजी और मुनि श्री किशनचन्दजी। मुनि श्री चमनाजी
आपके विषय में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती है। जन्म-तिथि, जन्मस्थान, दीक्षा-तिथि स्वर्गगमन-तिथि आदि उपलब्ध नहीं होती है । इतना उल्लेख मिलता है कि आप आजीविका के लिए ढढ़ाड़ के ममाणो ग्राम से आकर रहने लगे। रतलाम में पूज्य श्री मयाचन्दजी की निश्रा में दीक्षा ग्रहण की। ऐसी जनश्रुति है कि आप बाल्यकाल से ही बीज, पंचम, अट्ठम, ग्यारस और चौदस आदि पंचवर्ती तपश्चर्या करते थे। दीक्षा के पश्चात् आपने पंचवर्ती तपश्चर्या के साथ-साथ निरन्तर छट्ठ-छट्ठ (बेले) की तपश्चर्या छ: मास तक की। फिर दश उपवास (बाईस भक्त) के प्रत्याख्यान किये। इस दस उपवास के पारणे में छ: विगय का त्याग करते हुए ज्वार की रोटी और मूंग की दाल लिया करते थे। चौदह, पन्द्रह (बत्तीस भक्त) दिन की तपस्या करने के बाद आपने मासखमण की तपस्या प्रारम्भ कर दी। मासखमण जब दस दिन शेष थे तब अर्थात् मासखमण के २१ वें दिन भाद्र सुदि अष्टमी के दिन सूर्योदय के समय आपने स्वर्ग के लिये प्रयाण किया। मुनि श्री सोमचन्दजी
आपके बाल्यकाल सम्बन्धी कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं होती है । इतना उल्लेख मिलता है कि बाल्यकाल में ही आपके माता-पिता का देहान्त हो गया था और आप राजगढ़ के उमरिया गाँव के एक वणिक के यहाँ रहते थे। एक बार पूज्य मयाचन्दजी के शिष्य मुनि श्री मोतीचन्दजी उमरिया पधारे। मुनि श्री से बालक सोमजी का सम्पर्क हुआ। वि० सं० १८५९ में मुनि श्री मोतीचन्दजी के सान्निध्य में आपकी दीक्षा हुई। ५० वर्ष के संयमपर्याय का पालन करते हुए वि०सं० १९०८ कार्तिक शुक्ला पंचमी को आपका स्वर्गवास हो गया। मुनि श्री परसरामजी
आपका जन्म बुरहाणपुर गाँव के निवासी श्री नगाजी के यहाँ वि०सं० १८२५ में हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती प्रभुबाई था। आप जाति से कुम्भकार थे। वि०सं० १८५१ में २६ वर्ष की आयु में पूज्य आचार्य श्री मयाचन्दजी के शिष्य बड़े अमरचन्दजी से आपने दीक्षा ग्रहण की। दीक्षित होने के पश्चात् आपने छ: विगयों का त्याग कर दिया
और धूप में आतापना लेने लगे। तपश्चर्या के साथ-साथ श्रुताराधना में भी आपकी विशेष रुचि थी। आपके प्रमुख शिष्यों के नाम हैं- श्री दीपचन्दजी, श्री सूरजमलजी, श्री मूलचन्दजी, श्री प्रेमचन्दजी और श्री नन्दरामजी। आपके शिष्य प्राय: ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ किया करते थे। आपके इन शिष्यों में मूलचन्दजी ने अनेक ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ तैयार की हैं। मुनि श्री परशरामजी के विषय में ऐसी जनश्रुति है कि आपने कई सन्त-सतियों
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