Book Title: Sthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Sagarmal Jain, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 426
________________ आचार्य धर्मदासजी की मालव परम्परा ४०७ मुनि दीक्षा ग्रहण की। दीक्षित होने के पश्चात् आपने कठिन तप और ज्ञानाराधना की। आपके तपश्चर्या के विषय में दो प्रकार की मान्यताएँ हैं। एक मान्यता के अनुसार आपने एक दिन के उपवास से लेकर तेईस दिन तक के उपवास तथा ३१ दिन से ३५ दिन तक के उपवास किये थे। दूसरी मान्यता के अनुसार आपने १ दिन के उपवास से लेकर २१ दिन तक के तथा ३० दिन तक के उपवास से लेकर ३५ दिन तक के उपवास किये थे। इनके अतिरिक्त, आपने ४५ दिन तक के उपवास किये, दो वर्ष तक निरन्तर बेले- बेले की, बारह वर्ष तक निरन्तर तेले-तेले की, पाँच अठाई और अनेक बार पन्द्रह की तपस्या की । आहार में आपने छः द्रव्यों के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों का और एक विगय के अतिरिक्त अन्य विगयों का त्याग कर दिया था। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि आपने बदनावर चातुर्मास में ५१ दिन के उपवास भी किये थे। बदनावर चातुर्मास के बाद आप मुनि श्री मोखमसिंहजी की सेवा में आ गये। वि० सं० १९५६ आषाढ़ शुक्ला नवमी के दिन समाधिपूर्वक आपका स्वर्गवास हो गया। मुनि श्री प्रेमचन्दजी आप मुनि श्री परसरामजी के शिष्य थे। मालवी भाषा या तत्कालीन जन सामान्य की भाषा में आपकी कुछ रचनाओं के उपलब्ध होने के उल्लेख मिलते हैं, किन्तु कौनसी रचनाएँ हैं, कहाँ हैं इसकी जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। आपकी रचनाएँ ज्यादातर पद्य में निबद्ध हैं और राग बसन्त, मेघ मल्हार आदि रागों पर आधारित हैं । अतः कहा जा सकता है कि आपको संगीत का भी ज्ञान था। आपकी कुछ रचनाएँ नष्ट भी हो गयीं हैं- ऐसा माना जाता है। आपके जीवन परिचय के सम्बन्ध में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। श्री सिरेमलजी आप मुनि श्री दानाजी के शिष्य मुनिश्री मयाचन्दजी के शिष्य थे। आप स्वभाव से शान्त चिन्तनशील प्रवृत्ति के थे। आपके जीवन से अनेक चमत्कारिक घटनायें जुड़ी हैं, लेकिन विस्तारभय से यहाँ उल्लेख नहीं किया जा रहा है। मुनि श्री स्वरूपचन्दजी और मुनि श्री भेरुलालजी आपके गुरुभ्राता थे। आपके विषय में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। मुनि श्री वृद्धिचन्दजी आपका जन्म वि०सं० १९४१ में श्री धासीरामजी मुणत जो रतलाम के निवासी थे, के यहाँ हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती रतनबाई था। मुनि श्री गिरधारीलालजी के सतसंगों से आप में वैराग्य की भावना जगी । ऊधर प्रवर्तिनी श्री मेनकुँवरजी की गुरुणी श्रीवालीजी की धर्मप्रेरणा से आपकी माता भी संसार की असारता जान चुकी थीं। अतः दोनों माता-पुत्र ने संयममार्ग को अंगीकार करने का दृढ़ निश्चय किया। अपने परिजनों से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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