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धर्मदासजी की पंजाब, मारवाड़ एवं मेवाड़ की परम्पराएं आचार्य श्री मन्नालालजी अपने शिष्य जैन दिवाकर चौथमलजी आदि के साथ व नानक सम्प्रदाय के मुनि श्री मोखमचन्दजी आदि ने भी भाग लिया। अजमेर चातुर्मास के पश्चात् आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी जोधपुर पधारे जहाँ उन्हें रुग्णावस्था के कारण वि० सं० १९७९ से वि०सं० १९८३ तक जोधपुर में ही स्थिरवास करना पड़ा अपनी अवस्था को देखते हुए आचार्य श्री ने मुनि श्री हस्तीमलजी को संघनायक के रूप में अपना उत्तरदायित्व सौंपा। जब श्रीसंघ ने आचार्यश्री के स्वर्गवास के पश्चात् मुनि श्री हस्तीमलजी को आचार्य श्री के निर्णय से अवगत कराया तो आपने कहा कि जब तक मैं पूर्ण वयस्क न हो जाऊँ और अपना अध्ययन पूरा न कर लँ, तब तक अस्थायी तौर पर वयोवृद्ध मुनि श्री सुजानमलजी संघ के व्यवस्थापक और मुनि श्री भोजराजजी उनके परामर्शदाता होंगे। तदनुसार चार वर्षों तक यह व्यवस्था चलती रही। इस बीच आपने संस्कृत, प्राकृत, भाषा, न्याय, दर्शन छन्दशास्त्र, काव्य आदि का तलस्पर्शी अध्ययन किया। अब तक चतुर्विध संघ को यह अहसास होने लगा था कि इतने बड़े धर्मसंघ के संचालन हेतु आचार्य का होना आवश्यक है। अत: वि०सं० १९८७ की अक्षयतृतीया को जोधपुर में बड़े महोत्सव में १९ वर्ष की आयु में आपको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया। आपने न केवल आगमों का गहन अध्ययन किया बल्कि आपने अनेक टीकाएँ लिखीं, चरित्रकाव्यों की रचना की तथा ऐतिहासिक साहित्य का सृजन किया। आपकी रचनाओं की सूची आगे दी जायेगी। आपने तप जीवन में सामायिक और स्वाध्याय पर विशेष बल दिया। आपका मानना था कि सामायिक की साधना सबसे उत्कृष्ट साधना है। इसी प्रकार आपने कहा कि स्वाध्याय से नई चेतना आती है, ताजगी आती है। सामायिक और स्वाध्याय दोनों के द्वारा ही आत्मकल्याण सम्भव है। आपके इस विचार से समाज में एक नई चेतना का संचार हुआ जिसके परिणामस्वरूप अनेक प्रान्तों जैसे-राजस्थान, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडू,महाराष्ट्र आदि में स्वाध्याय संघ का गठन हुआ। आप समय एवं नियम के इतने पक्के थे कि प्रवचन में कभी देर हो जाती तो आप आहार ग्रहण न करके माला फेरने बैठ जाते थे, क्योंकि प्रवचन देते-देते माला फेरने का समय हो जाता था । आपकी दिनचर्या शास्त्रानुकूल थी। वि०सं० २०४४ तदनुसार ई० सन् १९९१ में २१ अप्रैल को रात्रि में ८.१५ बजे २१ दिन के संथारे के साथ आचार्य श्री का स्वर्गवास हो गया।
शायद ही ऐसा कोई प्रान्त हो जहाँ आचार्य श्री अपने चातुर्मास से लोगों को लाभान्वित न किया हो। आपके चातुर्मासों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
वि० सं० १९७८ अजमेर, १९७९ से १९८३ जोधपुर ( पूज्य श्री शोभाचन्दजी म० सा० के वृद्ध हो जाने से जोधपुर स्थिरवास करना पड़ा), वि०सं० १९८४-पीपाड़, १९८५-किशनगढ़, १९८६- भोपालगढ़, १९८७-जयपुर, १९८८
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