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धर्मदासजी की पंजाब, मारवाड़ एवं मेवाड़ की परम्पराएं
३६९ स्थान चातुर्मास संख्या
स्थान चातुर्मास संख्या रीयां
जयपुर रायपुर
किशनगढ़ ३ मेड़ता
अजमेर महामंदिर १ बड़लू
नागौर पीपाड़
जोधपुर आपके स्वतंत्र चातुर्मास निम्नरूपेण हुये
वि०सं० १९०२ का जोधपुर में, वि०सं० १९०३ का नागौर में, वि०सं० १९०४ का पाली में, वि०सं० १९०५ का किशनगढ़ (मदनगंज), वि०सं० १९०६ का नागौर में, वि०सं० १९०७ का जोधपुर में, वि०सं० १९०८ का अजमेर में, वि०सं० १९०९ का जयपुर में, वि०सं० १९१० का नागौर में । मुनि श्री नन्दरामजी
आचार्य श्री हम्मीरमलजी के ही समकालीन मुनि श्री नन्दरामजी का नाम भी बड़े आदर और गौरव से लिया जाता है। मुनि श्री नन्दरामजी का जन्म वि० सं० १८८० श्रावण शुक्ला षष्ठी की ढुढ़ार में हुआ। आपके पिता का नाम श्री ताराचन्दजी बगेरवाल तथा माता का नाम श्रीमती धणाजी था । आपके छोटे भाई का नाम भोवानजी था। संसार की असारता ने आपके पिता श्री ताराचन्दजी के मन में वैराग्य पैदा कर दिया। उन्होंने अपने पुत्रों के सामने अपने विचार प्रकट किये। पुत्रों ने विनय भाव से कहा कि पिताजी! सत्पत्र का कर्तव्य तो उत्तम कार्यों में पिता का अनुगमन करना होता है, अतः हमलोग भी आपके साथ रहेंगे। इस प्रकार तीनों पिता-पुत्र ने वि०सं० १८९४ कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी के दिन पाली नगर में रत्नवंश के आचार्य श्री हमीरमलजी के पास दीक्षा ले ली। मुनि श्री नन्दरामजी की व्याख्यान कला अत्यन्त ही लुभावनी थी। आप तीव्र बुद्धि के धनी थे। आपको अंग, उपांग, मूल, छेद आदि के साथ-साथ डेढ़ सौ थोकड़े मुँहजबानी याद थे। आपके अक्षर इतने सुन्दर थे कि पढ़नेवालों की आँखे तृप्त हो जाती थीं। आपने चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि अनेक सूत्र और स्तवन आदि की प्रतिलिपियाँ तैयार की थीं। टब्बा, टीका, दीपिका आदि आप बहुत ही शुद्ध उच्चारण के साथ पढ़ते थे। ऐसा उल्लेख मिलता है कि आपने ११ बार भगवती को आदि से अन्त तक पढ़ा था।
आपने तीन चातुर्मास आचार्य श्री रत्नचन्द्रजी की सेवा में, चार श्री हम्मीरमलजी की सेवा में, सात चातुर्मास आचार्य श्री कजोड़ीमलजी की सेवा में तथा पाँच आचार्य श्री कनीरामजी की सेवा में रहकर किये । आपने कुल ५६ चातुर्मास किये- जिनमें
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