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लोकाशाह और उनकी धर्मक्रान्ति १७. कुछ लोगों का कथन है कि भगवान् ने आज्ञा में धर्म बताया है, दया में धर्म नहीं बताया है । इसके प्रत्युत्तर में लोकाशाह ने आगम के उन सन्दर्भो को प्रस्तुत किया है जहाँ दया को धर्म बताया गया है, यथा
दयाधम्मस्स। 'उत्तराध्ययन'- ५/३० दयावरं धम्म। 'सूत्रकृतांग'- २२/४५ धम्मो मंगलमुक्किट्ठ। 'दशवैकालिक'- १/१ सव्वे सत्ता न हंतव्वा....एस धम्मे सुद्धे। 'आचारांग'- १/४/१ दयाय परिनिव्वुओ। 'उत्तराध्ययन'- १८/३५
इसी प्रकार 'उत्तराध्ययन' के बीसवें अध्ययन की ४८ वी गाथा में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि दया से रहित दुरात्मा अपना इतना अधिक अहित करती है कि कोई दुश्मन भी नहीं करता । जहाँ आत्मा में धर्म बताया गया वहाँ भी सर्वत्र अहिंसा का उल्लेख हुआ है अर्थात् दया का पालन करना ही आज्ञा है । धर्म अहिंसा रूप है। हिंसा में कहीं धर्म नहीं हो सकता । भगवान् ने 'प्रश्नव्याकरण' के प्रथम संवरद्वार में
अहिंसा को भगवती और सब जीवों का कल्याण करनेवाली बताया गया है । अत: धर्म अहिंसा या दया में है।
१८. भगवान् ने 'स्थानांग' में जो चार प्रकार के सत्य बताये हैं उनमें स्थापना सत्य भी है । स्थापना को सत्य मानने का अर्थ है कि प्रतिमा आदि भी सत्य है। इसके प्रत्युत्तर में लोकाशाह कहते हैं कि यहाँ सत्यता का सम्बन्ध भाषा से समझना चाहिए, आराधना से नहीं, क्योंकि प्रज्ञापना में स्थापना सत्य आदि दस प्रकार के सत्य बताये गये हैं जो भाषापद के अन्तर्गत हैं । अत: स्थापना सत्य का सम्बन्ध भाषा से है, आराधना से नहीं। जैसे किसी व्यक्ति का नाम कुलवर्धन दिया हो किन्तु उसके बाद से कुल की हानि हो रही हो फिर भी स्थापना सत्य की अपेक्षा से उसे कुलवर्धन कहना सत्य है, असत्य नहीं । जो बात भाषा के सम्बन्ध में कही गयी है उसे आराधना से नहीं जोड़ा जा सकता।
१९. 'अनुयोगद्धार' में आवश्यक के चार निक्षेप बताये हैं । उसमें से एक स्थापना निक्षेप है । यहाँ स्थापना निक्षेप से तात्पर्य साधु-साध्वी अथवा श्रावक-श्राविका जिस प्रकार के आवश्यक करते हैं उससे समझना चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि आवश्यक करते समय स्थापना करनी चाहिए, क्योंकि ये चारों निक्षेप आवश्यक के सन्दर्भ में नहीं कहे गये हैं बल्कि अनेक तथ्यों के सन्दर्भ में भी कहे गये हैं।
२०. कुछ लोगों का कहना है कि यदि आप दया में ही धर्म मानते हैं तो फिर राजा आदि वन्दन के लिए जाते समय हाथी, घोड़े ले जाते थे, वह क्या अधर्म है? मल्लीनाथ ने राजाओं को प्रतिबोध देने के लिए जो भवन बनवाया था, क्या वह अधर्म है? इसके प्रत्युत्तर में लोकाशाह कहते हैं कि इन क्रियाओं को करने में जितनी विरति है
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