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धर्मदासजी की परम्परा में उद्भूत गुजरात के सम्प्रदाय में आप मालवा पहुँचे जहाँ क्रियोद्धारक जीवराजजी से कार्तिक शुक्ला पंचमी को २० अन्य साथियों के साथ आपने आहती दीक्षा ग्रहण की। वि०सं०१७२१ माघ शुक्ला पंचमी को उज्जैन में आप संघ के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुये।
- आपकी दीक्षा के सम्बन्ध में दूसरी मान्यता श्री जीवनमुनिजी की है। उनका मानना है कि 'तत्कालीन क्रियोद्धारक श्री लवजीऋषिजी एवं श्री धर्मसिंहजी से पूर्ण सहमति नहीं होने पर उन्होंने स्वयं दीक्षा ले ली।' ऐसी मान्यता है कि संयमजीवन की प्रथम गोचरी में एक कुम्हार के घर से आपको राख की प्राप्ति हुई जिसे आपने सहज भाव से स्वीकार कर लिया। गोचरी में प्राप्त राख की चर्चा आपने धर्मसिंहजी से की। वे बोले- तुम बड़े सौभाग्यशाली हो। प्रथम दिवस ही तुमको राख जैसी पवित्र भिक्षा मिली है। इस कलियुग में तुम धर्म की रक्षा करने में समर्थ होगे और तुम्हारे द्वारा धर्म का प्रचार एवं प्रसार होगा। तुम्हारे अनुयायी बहुत अधिक संख्या में बढ़ेंगे। जिस प्रकार प्रत्येक परिवार में हमें राख मिल सकती है उसी प्रकार तुम्हें ग्राम-ग्राम में शिष्य मिलेंगे। धर्मदासजी के ९९ शिष्य हुये जिनमें २२ शिष्य प्रमुख थे। इन बाईस शिष्यों से ही बाईस सम्प्रदाय की स्थापना हुई।
धर्मदासजी के देवलोक होने के सम्बन्ध में यह उल्लेख मिलता है कि धार में एक मुनि ने अपना अन्त समय जानकर संथारा ग्रहण कर लिया, किन्तु संथारा व्रत पर वह अडिग नहीं रह पाया। व्रत की आशातना जानकर धर्मदासजी धार पहुँचे और उस मुनि की जगह स्वयं संथारा पर बैठ गये। परिणामत: आठवें दिन वि०सं० १७७२ ज्येष्ठ शुक्ला एकादशी को ७२ वर्ष की आयु में आपका स्वर्गवास हो गया।
आचार्य मूलचन्दजी और लीम्बड़ी सम्प्रदाय की स्थापना
क्रियोद्धारक धर्मदासजी स्वामी के ९९ शिष्यों में से २२ शिष्य प्रमुख हुये जिनमें प्रथम शिष्य मुनि श्री मूलचन्दजी स्वामी थे । मूलचन्दजी का जन्म वि० सं० १७०७ श्रावण सुदि एकादशी को अहमदाबाद में हुआ था । मुनि श्री मूलचन्दजी स्वामी पूज्य धर्मदासजी के शिष्य के रूप में वि०सं० १७२३ में अहमदाबाद में दीक्षित हुये। पूज्य धर्मदासजी के स्वर्गगमन के पश्चात् आप उनके पाट पर विराजित हुये। उस समय आस्टोडिया उपाश्रय में पाट नहीं था। प्रमुख संत के लिए किसी गृहस्थ के यहाँ से पाट लायी जाती थी। पाट लाने की परम्परा को समाप्त करने की दृष्टि से अहमदाबाद के श्रावक श्री धनराजजी ने आम की लकड़ी की एक पाट बनवायी। तत्पश्चात् मुनि श्री मूलचन्दजी के शिष्यगण श्री धनराजजी से आज्ञा लेकर उनके यहाँ से पाट को उपाश्रय में ले आये और वि०सं० १७६४ में मुनि श्री मूलचन्दजी स्वामी को उस पाट पर बिठाकर आचार्य पद की चादर ओढ़ाई गई। आप १७ वर्ष तक
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