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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास . आचार्य पद पर विराजित रहे। वि०सं० १७८१ में आपका स्वर्गवास हो गया और पूज्य श्री पंचायणजी आचार्य पद पर आसीन हये । आपके काल में धर्म प्रभावना अच्छी हुई, किन्तु मूर्तिपूजकों के वर्चस्व के कारण अहमदाबाद में स्थानकवासी समाज को उत्थान के साथ-साथ पतन के कगार पर भी खड़ा होना पड़ा। मनि श्री प्रकाशचन्द्रजी ने अपनी पुस्तक 'आछे अणगार अमारा' विभाग-३ में यहाँ तक लिखा है कि उस समय मूर्तिपूजकों ने स्थानकवासी समाज में अपने लड़के-लड़कियों का विवाह करना भी बन्द कर दिया था, दुकान से समान लेना-देना भी बन्द हो गया था, फलत: स्थानकवासी मूर्तिपूजक बनने लगे और अहमदाबाद में स्थानकवासियों की संख्या कम होने लगी। तदनुरूप साधु-साध्वीवृन्द की गोचरी में भी तकलीफ होने लगी। अन्तत: आचार्य श्री पंचायणजी ने गादी के स्थानपरिवर्तन का निर्णय लिया। आचार्य श्री की इस भावना को जानकर घोरांजी से दर्शनार्थ पधारे नगरसेठ संघपति पुरुषोत्तम वासणजी दोशी ने यह आश्वासन दिया कि आप घोरांजी पधारें और वहाँ गादी की स्थापना करें, इस कार्य के लिए हम तैयार है। इन सारी बातों को सुनकर लीम्बड़ी के नगरसेठ नानजी डुंगरसी ने कहा- साहेब जी ! धोरांजी जाना हो तो पूरा झालावाड़ धूमकर जाना पड़ेगा, जबकि लीम्बड़ी बीच में ही पड़ता है। वहाँ ४०० घर स्थानकवासी के हैं। इसलिए गादी स्थापित करवाने का लाभ हमें दीजिए। नगरसेठ की बात सुनकर आचार्य जी ने कहा- हम जहाँ गादी की स्थापना करेंगे, वहाँ छः शर्त रखेंगे, यदि आपको स्वीकार्य हो तो गादी की स्थापना होगी। छः शर्ते निम्न हैं१. यदि किसी विशेष कार्य से साधु वर्ग एकत्रित हो तो वहाँ केवल श्रीसंघ
के संघपति ही उपस्थित रहेंगे। २. वृद्ध और ग्लान साधु - साध्वी की देखभाल की व्यवस्था करनी पड़ेगी,
उनकी वैयावच्च करनी पड़ेगी। ३. जो साधु पढ़ते हों उनके पढ़ाई की व्यवस्था करनी पड़ेगी। ४. कोई भी किसी एक के पक्ष में न रहे, पक्षपात न करके तटस्थ रहे। ५. यदि साधु का कोई बड़ा विशिष्ट कार्य हो तो संघपति ही वह कार्य
करे, किसी दूसरे व्यक्ति को माध्यम न बनाये। किसी भी बात का फैसला
संघ में ही हो जाना चाहिए। ६. साधु कड़क आचारी बने यही उसका उद्देश्य रहे।
आचार्य श्री के ये छ: शर्त सेठ नानजी डुंगरसीजी ने स्वीकार कर ली और कहा कि मेरे बाद मेरे वंशज भी इस नियम के प्रति वफादार रहेंगे। आज भी श्री नानजी डुंगरसीजी की १५ वीं पीढ़ी लीम्बड़ी सम्प्रदाय के अध्यक्ष पद पर विराजमान है।
वि०सं० १८०१ ज्येष्ठ शुक्ला दशमी दिन गुरुवार को अहमदाबाद से लीम्बड़ी पाट भेजी गयी और इस प्रकार लीम्बड़ी सम्प्रदाय अस्तित्व में आया।
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