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लोकाशाह और उनकी धर्मक्रान्ति
१३५ समय उसको अलग-अलग करके उस ओर पीठ आदि करके बैठा भी जाता है, तो क्या उसकी अशातना नहीं होती?
३८. यह कहा जाता है कि भगवान् अरिष्टनेमि के समय में पांडवों ने शत्रुजय तीर्थ का जीर्णोद्धार करवाया था। यदि ऐसा होता तो थावच्चापुत्र ने १००० साधुओं के साथ, शुक अनगार ने १००० साधुओं के साथ, ढलक ऋषि ने ५०० अनगारों (मुनियों) के साथ में तथा पाँचों पांडवों के कमारों ने चारित्र लेकर शवंजय पर्वत पर अनशन किया था। इनमें से किसी ने भी प्रतिमा के सम्मुख भावपूजा की हो ऐसा नहीं जान पड़ता। इससे तो ऐसा लगता है कि वहाँ प्रतिमा और प्रासाद नहीं थे। पुन: ऐसा भी कहा जाता है कि भगवान् आदिनाथ शव॑जय पर्वत पर ९९ बार चढ़े थे। यह किस आगम में कहा गया है? जरा दिखाईये?
३९. शत्रुजय पर्वत पर अनेक मुनि सिद्ध हुये इसलिए उसे तीर्थ कहा जाता है। यदि अनेक व्यक्तियों के सिद्ध होने पर कोई जगह तीर्थ कही जाती है तो फिर सभी जगह तीर्थ कही जाती, क्योंकि आगम में कहा गया है कि ढ़ाईद्वीप के ४५ लाख योजन विस्तृत क्षेत्र में एक बालाग्र जितनी जगह भी ऐसी नहीं है जहाँ से अनन्त सिद्ध नहीं हुए हों । आगम का वचन है- 'जत्थ एगो सिद्धो तत्थ अनंता सिद्धा।' ऐसी स्थिति में तो सम्पूर्ण ढ़ाईद्वीप को ही तीर्थ मानना चाहिए । आगम में शत्रुजय का उल्लेख है, किन्तु उसे कहीं भी तीर्थ नहीं कहा गया है।
४०. 'भगवती' में गौतम स्वामी के द्वारा पूछने पर भगवान् ने कहा है कि सनत कुमार इन्द्र, भवसिद्धिक, सम्यक्-दृष्टि परित्त संसारी, सुलभ बोधि आराधक और चरम संसारी है। जब उनसे यह पूछा गया कि ऐसा किस आधार पर कहा जाता है तो भगवान ने बताया कि बहत से श्रमण-श्रमणियों और श्रावक-श्राविकाओं के हित, सुख, निःश्रेयस, अनुकम्पा आदि के करने के कारण से वे सम्यक्-दृष्टि भवसिद्धिक, सुलभबोधि आराधक आदि कहलाते हैं। यहाँ कहीं भी प्रतिमा का पूजन करने से जीव को सम्यक्त्व प्राप्त होता है, ऐसा नहीं कहा गया है, अपितु ऐसा कहा गया है कि संयमी साधु-साध्वियों को देखकर ही सम्यक्त्व को प्राप्त होता है और जीव परित्तसंसारी होता है। प्रतिमा का पूजन करते हुए किसी जीव को सम्यक्त्व प्राप्त हुआ हो, ऐसा कहीं भी आगम ग्रन्थों में दिखाई नहीं देता है। यदि कहीं हो तो दिखाईये?
४१. इस बोल में लोकाशाह लिखते हैं कि 'आचारांग' मूलसूत्र में मुनि के पाँच महाव्रतों का उल्लेख हुआ है और प्रत्येक महाव्रत की पाँच-पाँच भावनाएँ कहीं गयी हैं। इसी प्रकार 'प्रश्नव्याकरण' में भी पाँच महाव्रतों की पाँच-पाँच भावनाएँ कहीं गयी हैं । जबकि 'आचारांगनियुक्ति' और 'आचारांगवृत्ति' में तीर्थङ्करों की कल्याणक भूमियाँ, मेरु पर्वत, नंदीश्वर द्वीप, अष्टापद, शत्रुजय, गिरनार, अहिछत्रा आदि को तीर्थ कहकर उनकी
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