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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास श्री वृद्धिचन्दजी, श्री पन्नालालजी और श्री नेमिचन्दजी। आचार्य श्री पन्नालालजी
आपके विषय में यह जनश्रुति है कि आपके पार्थिव शरीर के साथ आपकी मुखपत्ती नहीं जली थी। आपके सम्बन्ध में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। आचार्य श्री नेमीचन्दजी
पूज्य श्री पन्नालालजी के देवलोक होने के बाद आप आचार्य पद पर आसीन हुए। आपने १ से ११ तक की तपस्या की लड़ी बहुत बार की । ग्रीष्मऋतु में चट्टानों पर बैठकर आतापना लेना आपको अच्छा लगता था। वि०सं० १९३९ में आप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। मात्र डेढ़ या दो वर्ष तक आचार्य रहे। वि०सं० १९४१ फाल्गुन कृष्णा त्रयोदशी को आपका स्वर्गवास हो गया। आचार्य श्री वेणीचन्दजी.
आपका जन्म वि०सं० १८९८ चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को चित्तौड़ के निकटवर्ती ग्राम पहुँना में हुआ। आपके पिता का नाम श्री चन्द्रभानजी और माता का नाम श्रीमती कमलादेवी था । आप बचपन से ही आत्मचिन्तन में तल्लीन रहते थे। १४-१५ वर्ष की अवस्था में आपकी उदासीन प्रवृत्ति को देखकर माता-पिता ने आपकी सगाई कर दी। सगाई के पश्चात् एक वर्ष के भीतर आपको अपने माता-पिता का वियोग सहना पड़ा। सगाई हो गयी थी लेकिन आपने विवाह का विचार त्याग दिया और अपनी भावना को अपने ज्येष्ठ भ्राता एवं भाभी के सामने व्यक्त किया। आपकी दीक्षा की भावना को जानकर सभी के पैरों तले की धरती खिसक गयी। आपके परिजनों के बहुत समझाया लेकिन आप अपने निर्णय पर अडिग रहे। अन्तत: आपके ज्येष्ठ भ्राता ने दीक्षा की अनुमति दे दी। वि०सं० १९२० आषाढ़ शुक्ला नवमी को मुनि श्री पन्नालालजी के सानिध्य में आपके दीक्षा ग्रहण की। आप एक घोर तपस्वी के रूप में प्रतिष्ठित थे। दीक्षा ग्रहण करते ही आपने जीवनपर्यन्त बेले-तेले आदि की तपस्या
और अभिग्रह धारण कर पारणे का नियम ले लिया और उसमें भी पाँच-पाँच दिन के उपवास करना भी आरम्भ कर दिया। ऐसा उल्लेख है कि आपके पारणे में यदि अभिग्रह पूरे नहीं होते तो आप पुन: उपवास का प्रत्याख्यान कर लेते थे। बनेड़ा में एक बार आपने यह अभिग्रह धारण किया कि जब तक वहाँ का शासक अपने पौत्र सहित आकर यह नहीं कहेगा कि 'वेण्या महाराज म्हारा शहर सं अबारें निकलजा' तब तक पारणा नहीं करूंगा। छ: महीने बाद यह अभिग्रह पूर्ण हुआ। विभिन्न क्षेत्रों में जैनधर्म की ज्योति फैलाते हुए आप शाहपुरा पधारे। आचार्य श्री नेमीचन्दजी के पश्चात् आप संघ के आचार्य बनें।
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