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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास 'श्री ऋषभदेव चरित', 'श्री शान्तिनाथ चरित', 'श्री मदनश्रेष्ठी चरित', 'चन्द्रसेन लीलावती चरित', 'जयसेन वियजसेन चरित', 'वीरसेन कुसुमश्री चरित', 'जिनदास सुगुणी', 'भीमसेन हरिसेन', 'सिंहलकुमार चरित', 'लक्ष्मीपतिसेठ चरित', 'वीरांगद सुमित्र चरित', 'संवेगसुधा चरित', 'मंदिरासती चरित', 'भुवनसुन्दरी चरित', 'मृगांकलेखा चरित', 'सार्थ आवश्यक', 'मूल आवश्यक', 'आत्महित बोध', 'सुबोध संग्रह', 'पच्चीस बोल लघुदंडक', 'दान का थोकड़ा', 'चौबीस ठाणा का थोकड़ा', 'श्रावक के बारह व्रत', 'धर्मफल प्रश्नोत्तर', 'जैन शिशुबोधिनी', 'सदा स्मरण', 'जैन मंगलपाठ', 'जैन प्रात:स्मरण', 'जैन प्रात:पाठ', 'नित्य स्मरण', 'नित्य पठन', 'शास्त्र स्वाध्याय', 'सार्थ भक्तामर', 'यूरोप में जैनधर्म', 'तीर्थङ्कर पंचकल्याणक', 'बृहत् आलोयणा', 'केवलानन्द छन्दावली', 'मनोहर रत्न धन्नावली', 'जैन सुबोध हीरावली', 'जैन सुबोध रत्नावली', 'श्रावक नित्य स्मरण', 'मल्लिनाथ चरित', 'श्रीपाल राजा चरित', 'श्री महावीर चरित', 'सुख-साधन', 'जैन साधु (मराठी), 'श्री नेमिनाथ चरित', 'श्री शालिभद्र चरित', 'जैन गणेश बोध', 'गुलाबी प्रभा', 'स्वर्गस्थ' 'मुनि युगल', 'सफल घड़ी', 'छ: काया के बोल', 'अनमोल मोती', 'सुवासित फूलडां', 'सज्जन सुगोष्ठी' एवं 'धन्ना शालिभद्र'। इन में से कुछ रचनाओं के गुजराती, मराठी, कन्नड़ और उर्दू संस्करण प्रकाशित हैं। आचार्य श्री. देवऋषिजी
ऋषि परम्परा की मालवा शाखा में आचार्य श्री अमोलकऋषिजी की पाट पर मुनि श्री देवऋषिजी विराजित हुए। आपका जन्म कच्छ के पुनड़ी ग्राम के श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्री जेठाजी सिंधवी के यहाँ वि०सं० १९२९ में कार्तिक अमावस्या को हुआ था। आपकी माता का नाम श्रीमती मीराबाई था। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि आपका जन्म मुम्बई में हुआ था, क्योंकि आपके पिताजी पुनड़ी से सपरिवार मुम्बई पधार चुके थे । जब आप ११ वर्ष के थे तब आपकी माताजी का देहावसान हो गया। वि०सं० १९४५ में कांदावाड़ी (मुम्बई) में आपने देवजी जेठा के नाम से दुकान खोली। वि०सं० १९४९ में मुनि श्री सुखाऋषिजी, मुनि श्री हीराऋषिजी और पण्डितप्रवर मुनि श्री अमीऋषिजी का चातुर्मास मुम्बई के चिंचपोकली में हुआ । वहीं आप तीनों की पवित्र वाणी ने देवजी की जीवनधारा को प्रेय से श्रेय की ओर मोड़ दिया। फलत: आपने पिताजी से दीक्षा की अनुमति लेकर वि०सं० १९५० चैत्र कृष्णा तृतीया के दिन सूरत में बड़े समारोह के साथ मुनि श्री सुखाऋषिश्री के सानिध्य में दीक्षा ग्रहण की। इस प्रकार आप देवजी से मुनि श्री देवजीऋषि बन गये । पूज्य श्री सुखाऋषिजी के सानिध्य में आपने शास्त्रों का अध्ययन किया। वि०सं० १९५० का चातुर्मास आपने अपने गुरुवर्य मुनि श्री रत्नमुनिजी और सुखाऋषिजी के साथ धुलिया में किया । वि०सं० १९५८ में आप मुनि श्री सुखाऋषिजी के साथ इच्छावर पधारे जहाँ मुनि श्री सुखाऋषिजी का स्वास्थ्य अनुकूल न रहा। आप उनकी चिकित्सा हेतु इच्छावर से भोपाल जो ४८ किमी० की दूरी पर है उन्हें
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